भागवत पुराण में गजेंद्र मोक्ष की कथा का वर्णन मिलता है, जहां पर स्वयं भगवान श्री कृष्ण यह कहते है, की जो मनुष्य भक्तिभाव से इसका पाठ और श्रवण करेगा उसके लिए इस जगत में कुछ भी प्राप्त करना असंभव नहीं होगा। वो मुझे बड़ी ही सहजता से प्राप्त कर लेगा। इसलिए बड़े ही स्थिर मन से इसका पाठ करना चाहिये।
गजेंद्र मोक्ष का पाठ ब्राह्ममुहूर्त में ही करना उचित माना जाता है, भगवान् श्री हरी के सामने या उनका ध्यान करके भाव पूर्वक इसका पाठ करे। इसका निरंतर श्रद्धा भाव से स्तवन करने से मनुष्य समस्त प्रकार के पापो से मुक्त हो जाता है, उसके सभी कष्टों और विघ्नो का विनाश हो जाता है। और शरीर त्यागने के पश्चात् उसे कभी नरक में नहीं जाना पड़ता, ऐसा स्वयं श्री भगवान् का वचन है।
'गजेंद्र मोक्ष की भक्तिमय कथा' एवंम स्त्रोत्र
गजेंद्र मोक्ष की सुन्दर कथा का वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के आठवे स्कन्द में किया गया है। क्षीर सागर में 10 हजार योजन ऊंचा एक त्रिकूट नाम का एक पर्वत था। उस पर्वत के निकट घने जंगल में बहुत सी हथनियों के साथ एक गजेंद्र नाम का हाथी निवास करता था। वह सभी हाथियों का सरदार था।
एक दिन वह उसी पर्वत पर वह अपनी पत्नियों के साथ बड़े-बड़े झाड़ियों और पेड़ों को रौंदता हुआ घूम रहा था।उसके पीछे-पीछे हाथियों के छोटे-छोटे बच्चे तथा हथनिया घूम रही थी। बड़े जोर की धूप के कारण वह तथा उसके साथी प्यास से व्याकुल हो समीप के एक सरोवर से पानी पीकर अपनी प्यास बुझाने लगे।
प्यास बुझाने के बाद वह सभी हथनियों और अपने साथियो के साथ स्नान कर जल क्रीड़ा करने लगा। उसी समय एक बलवान मगरमच्छ(ग्राह) ने उस गजराज के पैर को अपने मुंह में दबोच लिया और उसे बलपूर्वक पानी के भीतर खींचने लगा।
गजेंद्र ने तत्त्काल अपनी पूरी शक्ति लगाकर स्वयं को छुड़ाने का प्रयास किया परन्तु असफल रहा। उसके साथियों ने भी उसकी साहयता करने का पूर्ण प्रयत्न किया परन्तु वो भी सफल ना हो सके। जीवन-मरण का यह संघर्ष निरन्तर चलता रहा।
गजेन्द्र स्वयं को बाहर बाहर खींचने का प्रयत्न करता और ग्राह उसे भीतर खींच लेता। उन दोनों के संघर्ष के कारण सरोवर का निर्मल जल गंदला हो गया और सभी कमल-दल भी क्षत-विक्षत हो गए। समस्त जल-जंतु व्याकुल हो उठे। गजेन्द्र और ग्राह का संघर्ष निरंतर चलता रहा।
अंततः गजेन्द्र का सामर्थ्य क्षीण होने लगा और उसका शरीर शिथिल पड़ गया। अब उसके शरीर में शक्ति और मन में उतना उत्साह नहीं रहा। परन्तु जलचर होने के कारण ग्राह की शक्ति में कोई कमी नहीं आई। उसकी शक्ति बढ़ गई थी।
वह नवीन उत्साह के अत्यधिक शक्ति लगाकर गजेन्द्र को खींचने लगा। सभी प्रकार से असमर्थ गजेन्द्र के प्राण संकट में पड़ गए। उसकी शक्ति और पराक्रम का अहंकार चूर हो गया था। वह पूर्णतया निराश हो गया। परन्तु पूर्व जन्म के पुण्य फल के कारण उसे भगवत्स्मृति हो आई।
तब उसने निश्चय किया इस कराल काल संकट से केवल सर्वसमर्थ प्रभु ही उसकी रक्षा कर सकते है। अन्ततः इस निश्चय के साथ गजेन्द्र ने मन को एकाग्र कर पूर्वजन्म की स्मृति से सीखे हुए श्रेष्ठ स्त्रोत द्वारा श्री हरि की स्तुति करने लगा।
गजेंद्र का अंतर्नाद और उसकी भक्तिमय स्तुति को सुनकर सर्वदेवस्वरूप भगवान विष्णु तत्त्काल उस सरोवर के तट पर प्रकट हो गए। जब गजेन्द्र ने हाथ में चक्र लिए गरुड़ारूढ़ भगवान विष्णु को देखा तो उसने कमल का एक सुन्दर पुष्प अपनी सूंड में लेकर ऊपर उठाया और बड़े करुण स्वर से कहा- “ हे नारायण ! हे जगदीश्वर ! हे पूर्णतम परमात्मा ! आपको नमस्कार है।”
गजेन्द्र को अत्यंत पीड़ित देखकर भगवान विष्णु द्रवित हो तत्काल गरुड़ की पीठ से नीचे उतर आये और गजेन्द्र को ग्राह के साथ सरोवर से बाहर खींच कर तुरंत ही अपने सुदर्शन चक्र से ग्राह का मुंह चीरकर गजेन्द्र को मुक्त कर दिया। श्रीहरि के द्वारा मुक्ति पाकर ग्राह दिव्य शरीर धारण कर श्री विष्णु के चरणो में सिर झुकाकर उनकी स्तुति करने लगा।
वह समस्त पापो से मुक्त हो प्रभु की परिक्रमा कर अपने लोक को चला गया। भगवान विष्णु ने भी गजेन्द्र का उद्धार कर उसे अपना पार्षद बना लिया। गजेन्द्र द्वारा की गयी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने कहा- “हे प्यारे गजेन्द्र ! जो लोग ब्रह्म मुहूर्त में उठकर तुम्हारी की हुई इन स्तुति से मेरा ध्यान करेंगे, उन्हें मैं मृत्यु के समय निर्मल बुद्धि का दान प्रदान करूँगा।”
यह कहकर भगवान विष्णु ने पार्षद रूप में गजेन्द्र को अपने साथ लिया और गरुड़ पर विराजमान होकर वैकुण्ड़ धाम को चले गए।
गजेंद्र का पूर्व जन्म का वृतांत
प्राचीन काल मे द्रविड़ प्रदेश में एक पाण्ड्यवंशी राजा राज्य करता था। उनका नाम इंद्रद्युम्न था। वह बड़ा ही धर्मपरायण और प्रजा पालक था परन्तु वह अपना अधिक समय भगवान की आराधना में ही व्यतीत करता था। यद्यपि उनके राज्य में सर्वत्र सुख-शांति थी और प्रजा प्रत्येक प्रकार से अपने राजा से संतुष्ट थी।
राजा इंद्रद्युम्न ने राजकार्य में समय देना बहुत कम कर दिया। वे कहने लगे कि भगवान विष्णु ही मेरे राज्य की व्यवस्था करते है। अतः इसलिए अब मै अपने इष्ट की आराधना में ही रहना चाहता हु। राजा इंद्रद्युम्न राज्य का त्याग कर मलय-पर्वत पर जाकर रहने लगे और तपस्वियों का वेश बनाकर निरंतर परमब्रह्म श्री हरि की भक्ति में तल्लीन रहते थे। उनका मन और प्राण निरन्तर श्री हरि के चरणो में ही समाया था।
एक बार की बात है, राजा इन्द्रद्युम्न प्रतिदिन की भांति स्नान आदि से निवृत हो श्री हरि की भक्ति में लीन थे। उन्हें बाह्य जगत का तनिक भी ध्यान नहीं था। संयोग वश उसी समय महर्षि अगस्त्य अपने समस्त शिष्यों के साथ वहां पर पहुँच गए। ध्यान में निमग्न होने के कारण राजा इंद्रद्युम्न ने महर्षि और उनके शिष्यों का कोई स्वागत सत्कार नहीं किया।
राजा के इस व्यव्हार से महर्षि अगस्त्य क्रोधित हो गए। उन्होंने इंद्रद्युम्न को श्राप देकर कहा - “हे राजा तुमने गुरुजनो से कोई शिक्षा ग्रहण नहीं की है और अभिमानवश अपने राजधर्म से निवृत होकर मनमानी कर रहे हो। तुमने हाथी के सामान जड़बुद्धि का अनुसरण करके ऋषियों का अपमान किया है इसलिए तुम्हे तुम्हे घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो।” महर्षि अगत्स्य हरि भक्त राजा इंद्रद्युम्न को यह शाप देकर चले गए।
राजा इन्द्रद्युम्न ने इसे श्री भगवान का मंगलमय विधान समझकर प्रभु के चरणों में अपना सिर रख दिया। इसलिए महर्षि अगत्स्य के श्राप से राजा इंद्रद्युम्न अगले जन्म मे गजेन्द्र नाम के हाथी हुए, परन्तु अपनी अटल प्रभु भक्ति के कारण उन्हे पूर्वजन्म की स्मृति बनी रही।
ग्राह का पूर्व जन्म का वृतांत
गजेंद्र को जिस ग्राह ने पकड़ा था वह पूर्वजन्म मे हूहू नामक एक गन्धर्व था। एक समय महर्षि देवल सरोवर मे स्नान कर रहे थे। उसी समय हूहू नमक गन्धर्व ने उपहास के लिए सरोवर मे जाकर महर्षि देवल के पैर पकड़ लिये और मगर-मगर चिल्लाने लगा।
उसके इस व्यवहार से महर्षि देवल क्रोधित हो गये तब उन्होने हूहू को श्राप देते हुऐ कहा - हे गन्धर्व तुझे ऋषि और मुनियो का आदर करना चाहिए परन्तु तू एक मगर की भाति पैर पकड़कर मेरा निरादर और उपहास कर रहा है क्या तुझे लाज नहीं आती। यदि तुझे मगर बनने का इतना ही शौक है तो जा तुझे मगर की ही योनि प्राप्त हो।
श्राप पाकर हूहू गंधर्व ऋषि से क्षमायाचना करने लगा। तब महर्षि देवल ने कहा मेरा श्राप व्यर्थ नहीं जायगा इसलिए तुझे मगर योनि तो अवश्य प्राप्त होगी परन्तु तेरा उद्धार श्री भगवान के हाथों से होगा।
गजेन्द्र मोक्ष स्त्रोत्र हिंदी मे
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श्री शुकदेव जी ने कहा –
यों निश्चय कर व्यवसित मति से मन प्रथम हृदय से जोड लिया ।
फिर पूर्व जन्म में अनुशिक्षित इस परम मंत्र का जाप किया ॥१॥
गजेन्द्र बोला –
मन से है ऊँ नमन प्रभु को जिनसे यह जड चेतन बनता ।
जो परमपुरुष जो आदि बीज, सर्वोपरि जिसकी ईश्वरता ॥२॥
जिसमें, जिससे, जिसके द्वारा जग की सत्ता, जो स्वयं यही ।
जो कारण-कार्य परे सबके , जो निजभू आज शरण्य वही ॥३॥
अपने में ही अपनी माया से ही रचे हुए संसार ।
को हो कभी प्रकट, अन्तर्हित, कभी देखता उभय प्रकार ॥
जो अविद्धदृक साक्षी बन कर, जो पर से भी सदा परे ।
है जो स्वयं प्रकाशक अपना, मेरी रक्षा आज करे ॥४॥
लोक, लोकपालों का, इन सबके कारण का भी संहार ।
कर देता संपूर्ण रूप से महाकाल का कठिन कुठार ॥
अंधकार तब छा जाता है, एक गहन गंभीर अपार ।
उसके पार चमकते जो विभु, वे में मुझको आज संभार ॥५॥
देवता तथा ऋषि लोग नही जिनके स्वरूप को जान सके ।
फिर कौन दूसरा जीव भला, जो उनको कभी बखान सके ॥
जो करते नाना रूप धरे , लीला अनेक नटतुल्य रचा ।
है दुर्गम जिनका चरितसिंधु , वे महापुरुष लें मुझे बचा ॥६॥
जो साधु स्वाभवी , सर्व सुहृद वे मुनिगण भी सब सग छोड ।
बस केवल मात्र आत्मा का सब भूतों से संबंध जोड ॥
जिनके मंगलमय पद दर्शन की इच्छा से वन मे पालन ।
करते अलोक व्रत का अखंड , वे ही हैं मेरे अवलम्बन ॥७॥
जिसका होता है जन्म नही, केवल होता भ्रम से प्रतीत ।
जो कर्म और गुण दोष तथा जो नाम रूप से है अतीत ॥
रचनी होती जब सृष्टि किंतु, जब करना होता उसका लय ।
तब अंगीकृत कर लेता है इन धर्मों को वह यथा समय ॥८॥
उस परमेश्वर, उस परमब्रह्म, उस अमित शक्ति को नमस्कार ।
जो अद्भुतकर्मा जो अरूप फिर भी लेता बहुरूप धार ॥९॥
परमात्मा जो सबका साक्षी, उस आत्मदीप को नमस्कार ।
जिसतक जाने में पथ में ही जाते वाणी मन चित्त हार ॥१०॥
बन सतोगुणी सुनिवृत्तिमार्ग से पाते जिसको विद्वज्जन ।
जो सुखस्वरूप निर्वाण जनित, जो मोक्षधामपति, उसे नमन ॥११॥
जो शान्त, घोर, जडरूप प्रकट होते तीनों गुण धर्म धार ।
उन सौम्य ज्ञान घन निर्विशेष को नमस्कार है, नमस्कार ॥१२॥
सबके स्वामी, सबके साक्षी, क्षेत्रज्ञ ! तुझे है नमस्कार ।
हे आत्ममूल हे मूल प्रकृति, हे पुरुष नमस्ते बार बार ॥१३॥
इन्द्रिय विषयों का जो दृष्टा, इन्द्रियानुभव का जो कारन ।
जो व्यक्त असत की छाया में, हे सदाभास ! है तुझे नमन ॥१४॥
सबके कारण निष्कारण भी, हे विकृतिरहित सबके कारण ।
तेरे चरणों में बारबार है नमस्कार मेरा अर्पण ॥
सब श्रुतियों, शास्त्रों का सारे, जो केवल एक अगाध निलय ।
उस मोक्षरूप को नमस्कार, जिसमें पाते सज्जन आश्रय ॥१५॥
जो ज्ञानरूप से छिपा गुणों के बीच, काष्ठ में यथा अनल ।
अभिव्यक्ति चाहता मन जिसका, जिस समय गुणों में हो हलचल ॥
मैं नमस्कार करता उनको, जो स्वयं प्रकाशित हैं उनमें ।
आत्मालोचन करके न रहे जो विधि निषेध के बंधन में ॥१६॥
जो मेरे जैसे शरणागत जीवों का हरता है बंधन ।
उस मुक्त अमित करुणा वाले, आलस्य रहित के लिये नमन ॥
सब जीवों के मन के भीतर, जो हैं प्रतीत प्रत्यक्चेतन ।
बन अन्तर्यामी, हे भगवन! हे अपरिछिन्न ! है तुझे नमन ॥१७॥
जिसका मिलना है सहज नही, उन लोगों को जो सदा रमें ।
लोगों में, धन में, मित्रों में, अपने में, पुत्रों में, घर में ॥
जो निर्गुण, जिसका हृदय बीच जन अनासक्त करते चिन्तन ।
हे ज्ञानरूप ! हे परमेश्वर ! हे भगवन ! मेरा तुझे नमन ॥१८॥
जिनको विमोक्ष-धर्मार्थ काम की इच्छा वाले जन भज कर ।
वांछित फल को पा लेते हैं; जो देते तथा अयाचित वर ॥
भी अपने भजने वालों को, कर देते उनकी देह अमर ।
लें वे ही आज उबार मुझे, इस संकट से करुणासागर ॥१९॥
जिनके अनन्य जन धर्म, अर्थ या काम मोक्ष पुरुषार्थ-सकल ।
की चाह नही रखते मन में, जिनकी बस, इतनी रुचि केवल ॥
अत्यन्त विलक्षण श्री हरि के जो चरित परम मंगल सुन्दर ।
आनन्द-सिंधु में मग्न रहें , गा गा कर उनको निसि-वासर ॥२०॥
जो अविनाशी, जो सर्व व्याप्त. सबका स्वामी, सबके ऊपर ।
अव्यक्त किन्तु अध्यात्म मार्ग के पथिकों को जो है गोचर ॥
इन्द्रियातीत अति दूर सदृश जो सूक्ष्म तथा जो हैं अपार ।
कर कर बखान मैं आज रहा, उस आदि पुरुष को ही पुकार ॥२१॥
उत्पन्न वेद, ब्रह्मादि देव, ये लोक सकल , चर और अचर ।
होते जिसकी बस, स्वल्प कला से नाना नाम रूप धरकर ॥२२॥
ज्यों ज्वलित अग्नि से चिंगारी, ज्यों रवि से किरणें निकल निकल ।
फिर लौट उन्ही में जाती हैं, गुण कृत प्रपंच उस भाँति सकल ॥
मन बुद्दि सभी इन्द्रियों तथा सब विविध योनियों वाले तन ।
का जिससे प्रकटन हो जिसमें, हो जाता है पुनरावर्त्तन ॥२३॥
वह नही देव, वह असुर नही, वह नही मर्त्य वह क्लीब नही ।
वह कारण अथवा कार्य नही, गुण, कर्म, पुरुष या जीव नही ॥
सबका कर देने पर निषेध, जो कुछ रह जाता शेष, वही ।
जो है अशेष हो प्रकट आज, हर ले मेरा सब क्लेश वही ॥२४॥
कुछ चाह न जीवित रहने की जो तमसावृत बाहर-भीतर –
ऐसे इस हाथी के तन को क्या भला करूंगा मैं रखकर ?
इच्छा इतनी-बन्धन जिसका सुदृढ न काल से भी टूटे ।
आत्मा की जिससे ज्योति ढँकी, अज्ञान वही मेरा छूटे ॥२५॥
उस विश्व सृजक , अज, विश्व रूप, जग से बाहर जग-सूत्रधार ।
विश्वात्मा, ब्रह्म, परमपद को, इस मोक्षार्थी का नमस्कार ॥२६॥
निज कर्मजाल को, भक्ति योग से जला, योग परिशुद्ध हृदय ।
में जिसे देखते योगीजन , योगेश्वर प्रति मैं नत सविनय ॥२७॥
हो सकता सहन नही जिसकी त्रिगुणात्मक शक्ति का वेग प्रबल ।
जो होता तथा प्रतीत धरे इन्द्रिय विषयों का रूप सकल ॥
जो दुर्गम उन्हें मलिन विषयों में जो कि इन्द्रियों के उलझे ।
शरणागत-पालक अमित शक्ति हे! बारंबार प्रणाम तुझे ॥२८॥
अनभिज्ञ जीव जिसकी माय, कृत अहंकार द्वारा उपहत ।
निज आत्मा से मैं उस दुरन्त महिमामय प्रभु के शरणागत ॥२९॥
श्री शुकदेव जी ने कहा –
यह निराकार-वपु भेदरहित की स्तुति गजेन्द्र वर्णित सुनकर ।
आकृति विशेषवाले रूपों के अभिमानी ब्रह्मादि अमर ॥
आये जब उसके पास नही , तब श्री हरि जो आत्मा घट घट ।
के होने से सब देव रूप, हो गये वहाँ उस काल प्रकट ॥३०॥
वे देख उसे इस भाँति दुःखी , उसका यह आर्त्तस्तव सुनकर ।
मन-सी गति वाले पक्षी राज की चढे पीठ ऊपर सत्वर ॥
आ पहुँचे, था गजराज जहाँ, निज कर में चक्र उठाये थे ।
तब जगनिवास के साथ साथ, सुर भी स्तुति करते आये थे ॥३१॥
अतिशय बलशाली ग्राह जिसे था पकडे हुए सरोवर में ।
गजराज देखकर श्री हरि को, आसीन गरुड पर अंबर में ॥
खर चक्र हाथ में लिये हुए, वह दुखिया उठा कमल करमें ।
‘हे विश्व-वन्द्य प्रभु ! नमस्कार’ यह बोल उठा पीडित स्वर में ॥३२॥
पीडा में उसको पडा देख, भगवान अजन्मा पडे उतर ।
अविलम्ब गरुड से फिर कृपया झट खींच सरोवर से बाहर ॥
कर गज को मकर-सहित, उसका मुख चक्रधार से चीर दिया ।
देखते-देखते सुरगण के हरि ने गजेन्द्र को छुडा लिया ॥३३॥
अंत मे निष्कर्ष
कर्म का सिद्धांत बड़ा ही विचित्र है, जब तक कर्म का फल पूर्ण नहीं होता तब तक कर्म आपका पीछा नहीं छोड़ता है। कर्म ही बंधन है और कर्म ही मुक्ति का साधन भी यही इस कथा से हमे शिक्षा प्राप्त होती है। मानव को किसी भी परिस्थिति मे ईश्वर को नहीं भूलना चाहिये क्योकि जो ईश्वर को नहीं भूलता ईश्वर भी उसे नहीं भूलते और वो संकट मे पड़ने पर साहयता अवश्य करते है।
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