हमारे पौराणिक ग्रंथो मे भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों का वर्णन है। जब जब सृष्टि पर कभी भी कोई संकट आया तभी श्री हरि किसी ना किसी रूप मे प्रगट होकर उस संकट का निवारण करते है। 


भगवान विष्णु ने क्यों लिया वाराह अवतार

आज भगवान के उसी एक अद्भुत अवतार का वर्णन करेगे। जब हिरण्याक्ष नामक असुर ने पृथ्वी को क्षीर सागर के जल मे डुबो दिया था तब पृथ्वी के उद्धार के लिए भगवान वाराह रूप मे अवतरित हुए थे। भगवान विष्णु का यह अवतार भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ था।
  

जय विजय को सनकादिक ऋषियों का श्राप 


हिरण्याक्ष असुर की कथा भी बहुत अद्भुत है। एक बार सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार (चारों सनकादि ऋषि) चित्त की शान्ति के लिये भगवान विष्णु के दर्शन करने लिए उनके बैकुण्ठ धाम में गये। वहां द्वार पर जय और विजय नाम के दो द्वारपाल पहरा दे रहे। उन दोनों ने इन सनकादिक ऋषियों को द्वार पर ही रोक दिया और भीतर जाने से मना करने लगे। 

उनके इस प्रकार मना करने पर सनकादिक ऋषियों ने जय और विजय ने कहा, "अरे मूर्खों! हम तो भगवान विष्णु के परम भक्त हैं। हमारी गति कहीं पर भी नहीं रुकती है। हम देवाधिदेव के दर्शन करना चाहते हैं। तुम हमें उनके दर्शनों से क्यों रोकते हो? तुम लोग तो भगवान की सेवा में रहते हो, तुम्हें तो उन्हीं के समान समदर्शी होना चाहिये।

भगवान का स्वभाव परम शान्तिमय है, तुम्हारा स्वभाव भी वैसा ही होना चाहिये। हमें भगवान विष्णु के दर्शन के लिये जाने दो।" ऋषियों के इस प्रकार कहने पर भी जय और विजय उन्हें बैकुण्ठ के अन्दर जाने से रोकने लगे। जय और विजय के इस प्रकार रोकने पर सनकादिक ऋषियों ने क्रुद्ध होकर कहा, "भगवान विष्णु के समीप रहने के बाद भी तुम लोगों में अहंकार आ गया है और अहंकारी का वास बैकुण्ठ में नहीं हो सकता। 

इसलिये हम तुम्हें शाप देते हैं कि तुम लोग मृत्युलोक में जाओ और अपने पाप का फल भुगतो।" उनके इस प्रकार शाप देने पर जय और विजय भयभीत होकर उनके चरणों में गिर पड़े और क्षमा माँगने लगे।

lord vishnu varah incarnation

भगवान विष्णु को जब इस घटना का ज्ञान हुआ तो वह स्वयं लक्ष्मी जी एवं अपने समस्त पार्षदों के साथ उनके स्वागत के लिय पधारे। भगवान विष्णु ने उनसे कहा, "हे मुनीश्वरों! ये जय और विजय नाम के मेरे पार्षद हैं। इन दोनों ने अहंकार बुद्धि को धारण कर आपका अपमान करके अपराध किया है। आप लोग मेरे प्रिय भक्त हैं और इन्होंने आपकी अवज्ञा करके मेरी भी अवज्ञा की है। 


इनको शाप देकर आपने उत्तम कार्य किया है। इन अनुचरों ने ब्रह्मणों का तिरस्कार किया है और उसे मैं अपना ही तिरस्कार मानता हूँ। मैं इन पार्षदों की ओर से क्षमा याचना करता हूँ। सेवकों का अपराध होने पर भी संसार स्वामी का ही अपराध मानता है।

अतः मैं आप लोगों की प्रसन्नता की भिक्षा चाहता हूँ।" भगवान के इन मधुर वचनों से सनकादिक ऋषियों का क्रोध तत्काल शान्त हो गया। भगवान की इस उदारता से सनकादिक ऋषि अति आनंदित हुऐ तब उन्होने कहा हे जगतपति आप ही इस सृष्टि का आधार है और आप के कारण ही धर्म स्थिर है। 

सभी प्राणियो मे आप ही समाहित है फिर भी हमने अकारण ही क्रोध मे आकर इन पार्षदों को श्राप दे दिया है इसके लिये हम आपसे क्षमा मांगते है अगर आप इसे उचित जाने तो इन द्वारपालों को क्षमा करके हमारे श्राप से मुक्त कर दीजिये।"

भगवान विष्णु ने कहा, "हे मुनिगणों! मै सर्वशक्तिमान होने के बाद भी ब्राह्मणों के वचन को असत्य नहीं करना चाहता क्योंकि इससे धर्म का उल्लंघन होता है। आपने जो शाप दिया है वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है। ये अवश्य ही इस दण्ड के भागी हैं। ये दिति के गर्भ में जाकर दैत्य योनि को प्राप्त करेंगे और मेरे द्वारा इनका संहार होगा। 

ये मुझसे शत्रुभाव रखते हुये भी मेरे ही ध्यान में लीन रहेंगे। मेरे द्वारा इनका संहार होने के बाद ये पुनः इस धाम में वापस आ जायगे।" जय और विजय बैकुण्ठ से गिर कर दिति के गर्भ में प्रवेश कर गये। कुछ काल के पश्चात् दिति के गर्भ से दो पुत्र उत्पन्न हुये जिनका नाम प्रजापति कश्यप ने हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष रखा।  

हिरणायक्ष का शक्ति प्राप्त करना  


हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए बहुत बड़ा तप किया। उनके तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर कहा, 'तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूं। वर मांगो, क्या चाहते हो?' हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया,'प्रभो, हमें ऐसा वर दीजिए, जिससे न तो कोई युद्ध में हमें पराजित कर सके और न ही कोई हमे मार सके।

' ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहकर अपने लोक में चले गए। ब्रह्मा जी से अजेयता और अमरता का वरदान पाकर हिरण्याक्ष उद्दंड और स्वेच्छाचारी बन गया। वह तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा। दूसरों की तो बात ही क्या, वह स्वयं भगवान विष्णु को भी अपने समक्ष तुच्छ मानने लगा। हिरण्याक्ष ने गर्वित होकर तीनों लोकों को जीतने का विचार किया। 

वह हाथ में गदा लेकर इन्द्रलोक में जा पहुंचा। देवताओं को जब उसके पहुंचने की ख़बर मिली, तो वे भयभीत होकर इन्द्रलोक से भाग गए। देखते ही देखते समस्त इन्द्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार स्थापित हो गया। 

हिरणायक्ष द्वारा पृथ्वी को रसातल मे डुबोना 


तब उस अत्याचारी ने समूची पृथ्वी को रसातल मे डुबो दिया। तब सभी देवताओं ने ब्रह्माजी को साथ लेकर भगवान विष्णु से पृथ्वी के उद्धार के लिए प्रार्थना की तब श्री भगवान ब्रह्माजी की नासिका से एक वाराह के रूप मे प्रगट हुऐ। तब रसातल में उसने एक विस्मयजनक दृश्य देखा। तब उसने देखा, एक 

lord vishnu varah incarnation

वाराह अपने दांतों के ऊपर धरती को उठाए हुए चला जा रहा है। वह मन ही मन सोचने लगा, यह वराह कौन है? कोई भी साधारण वराह धरती को अपने दांतों के ऊपर नहीं उठा सकता। अवश्य यह वराह के रूप में भगवान विष्णु ही हैं, क्योंकि वे ही देवताओं के कल्याण के लिए माया का नाटक करते रहते हैं। 

हिरण्याक्ष वराह को लक्ष्य करके बोल उठा,'तुम अवश्य ही भगवान विष्णु हो। धरती को रसातल से कहां लिए जा रहे हो? यह धरती तो दैत्यों के उपभोग की वस्तु है। इसे यही रख दो। तुम अनेक बार देवताओं के कल्याण के लिए दैत्यों के साथ छल कर चुके हो। आज तुम मुझे छल नहीं सकोगे। आज में पुराने बैर का बदला तुमसे चुका कर रहूंगा।

' किंतु भगवान विष्णु शांत ही रहे। वे वराह के रूप में अपने दांतों पर धरती को लिए हुए आगे बढ़ते रहे। हिरण्याक्ष भगवान वराह रूपी विष्णु के पीछे लग गया। उन्होंने रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया। यह देखकर हिरण्याक्ष की रगों में बिजली दौड़ गई। वह हाथ में गदा लेकर भगवान विष्णु पर टूट पड़ा। 

तब भगवान ने दूसरे ही क्षण हिरण्याक्ष के हाथ से गदा छीनकर दूर फेंक दी। हिरण्याक्ष क्रोध से उन्मत्त हो उठा और वह हाथ में त्रिशूल लेकर भगवान की ओर झपटा। तब भगवान विष्णु ने शीघ्र ही अपने दांतो से उसके वक्ष को चिर डाला और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। भगवान विष्णु के हाथों मारे जाने के कारण हिरण्याक्ष फिर से बैकुंठ लोक में चला गया।


अंत मे निष्कर्ष


इस प्रकार भगवान ने वराह अवतार के रूप मे पृथ्वी का उद्धार किया और धर्म की रक्षा की इस अवतार का उद्देश्य पूर्ण हो भगवान का वराह स्वरूप पुनः श्री हरि के रूप मे विलीन हो गया। ये कथाये हमे भगवान की सत्ता का विश्वास दिलाती है, की जब भी मानव समाज संकट मे होता है, भगवान किसी ना किसी रूप मे अवतरित हो सबकी रक्षा करते है

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