Lord Rama bhakt aur Bhagwan

'भक्त और भगवान' का एक सरल मिलन 


भक्ति के भिन्न-भिन्न प्रकार होते है, जैसे ज्ञान भक्ति और समर्पण भक्ति। उसी प्रकार भक्त के भी भिन्न-भिन्न प्रकार होते है, जैसे ज्ञान भक्त और समर्पण भक्त। दोनों अपने-अपने माध्यम के द्वारा ईश्वर को जानने का प्रयास करते है।  

इन दोनों मे श्रेष्ठ कौन है, और उसकी पहचान कैसे हो इसे हम रामायण के उत्तरकाण्ड प्रसंग मे जब समस्त आर्य ऋषियों का संत समागम भगवान राम के दरबार मे आयोजित होता है, तब हनुमान जी वहां उपस्थित ऋषियों से भक्त और ज्ञानी के अंतर की व्याख्या का निवेदन करते है। ऋषियों की व्याख्या भक्त और ज्ञानी के अंतर को बड़ी सरलता से परिभाषित कर देती है। 

भगवान की दृस्टि मे भक्त एक शिशु के सामान होता है, जिस प्रकार माता सदैव अपने शिशु की सुरक्षा के लिए चिंतित रहती है, उसी प्रकार भगवान भी भक्त की देखभाल करते है। जब शिशु वयस्क होकर ज्ञानी हो जाता तब उसे माता के स्नेह की आवश्य्कता कम होती, तब माता भी उसकी चिंता अधिक नहीं करती, तब भगवान भी ज्ञानी भक्त का उसी प्रकार ध्यान रखते है। 

भागवत का प्रसंग


भक्त की इसी सरलता का एक प्रसंग भागवत पुराण मे महर्षी नारद जी तथा श्री वासुदेव जी के मध्य हुआ है। इसमें मोह-माया-मद से कैसे निर्लिप्त हुआ जा सकता है, और सरलता से कैसे ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते है, यही सविस्तार समझाया गया है। इसमें महर्षी नारद जी ने वासुदेवजी को आसक्ती एवं उसकी निवृति का मार्गदर्शन, उदहारण द्वारा प्रस्तुत किया है।

किसी परिवार मे एक बालक का जनम हुआ, वह बाल्यकाल से ही बड़ा सरल था। उस बालक मे कोई भी दोष नहीं था सिवाय एक के वह खाना बहुत अधिक खाता था। धीरे-धीरे वह वयस्क हुआ, परन्तु उसकी सरलता मे कोई परिवर्तन नहीं हुआ। उसके अत्यधिक भोजन खाने की आदत के कारण परिवार वाले अत्यंत दुखी रहते थे। 

अगर एक बार भोजन करने बैठ जाय तो उठने का नाम ही ना ले, परिवार के समस्त सदस्य भोजन कर ले तब भी वह बैठा रहे। एक दिन परिवार के सदस्यों ने उसे घर से निकाल दिया, कही पर भी कोई ठिकाना ना होने के कारण वह वापस लौट आया, परन्तु उसे पुनः निकाल दिया गया।  

Lord Rama bhakt aur Bhagwan

घर से निकलकर वह एक मठ मे जा पहुंचा वहां उसने देखा एक महंत अपने शिष्यों के साथ बैठे हुऐ है। उनकी शारारिक सरचना को देखकर उसने सोचा यहाँ खाने पीने की कोई समस्या नहीं लगती है तभी ये सब काफी हष्ट पुष्ट है। इसी बात को ध्यान मे रखकर उसने महंत जी से वार्तालाप आरम्भ की, उसने पूछा आप कौन है और यहाँ क्या काम करते है। 

तब महंत जी कहा हम यहाँ के महंत है और यहाँ मंदिर की सारी व्यवस्था हम ही देखते है, फिर उसने पूछा ये सब कौन है और यहाँ क्या करते है।गुरु जी कहाँ, ये सब मेरे चेले है और यहाँ पूजा पाठ करते है और खाते पीते है। उसने मन मे विचार किया यदि यहाँ रहने की वयवस्था हो जाये तो सारी समस्या का समाधान हो जायेगा यही विचार करके उसने गुरु जी से स्वयं को अपना चेला बनाने को कहाँ, गुरु जी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार करके उसे मंदिर मे रहने की अनुमति प्रदान कर दी

इस प्रकार वह मंदिर मे आनंद पूर्वक रहने लगा, खूब पेट भरकर खाता और मजे मे दिन भर सोता रहता। एक दिन उसने देखा की आज मंदिर मे चूल्हा नहीं जल रहा है, और ना ही भोजन की कोई वयवस्था ही दिखाई दे रही है। उसने इसका कारण गुरु जी पूछा, गुरु जी ने कहा आज एकादशी है और इस दिन भोजन नहीं बनता है आज सभी उपवास का पालन करेगे इसलिये तुम भी आज उपवास करो। 

गुरु जी बात सुनकर वह संकोच मे पड़ गया, उसने गुरु जी से कहा मै भोजन किये बिना नहीं रह सकता अगर आज भोजन नहीं किया तो निश्चय ही मेरे प्राण निकल जायेगे, इसका कुछ उपाय कीजिये   

तब गुरु जी ने कहा ठीक है, परन्तु आज मंदिर मे तो भोजन नहीं बनेगा क्या तुम अपना भोजन स्वयं बना लोगे। उसने कहा मरता क्या नहीं करता अवश्य बना लूंगा। तब गुरु जी न उसे आदेश दिया की भंडारे से सामान लेकर नदी किनारे चले जाओ और वहा भोजन बना लेना, परन्तु सबसे पहले ठाकुर जी को भोग लगाना उसके पश्चात ही भोजन ग्रहण करना। 

गुरु जी का आदेश पाकर वह सारा सामान ले नदी किनारे जाकर भोजन बनाने लगा, भोजन बनाकर गुरु जी के आदेश अनुसार वह भोग लगाने के लिये भगवान को पुकारने लगा परन्तु भगवान नहीं आये। तब उसने भगवान से प्रार्थना की हे प्रभु आज एकादशी है, आज आपको किसी भी मंदिर मे भोजन नहीं मिलेगा इसलिये देर मत करिये जो रुखा सूखा बनाया है उसे ही ग्रहण कर लीजिये, अन्यथा यह भी नहीं मिलेगा।     

भगवान उसकी इस सरल भावना को जानकर तुरंत प्रगट हो गये, और साथ मे माता सीता को लेकर आये, भगवान को आया देखकर भक्त प्रसन्न तो हुआ, लेकिन वह चिंतित भी हो गया। उसने सोचा था की ठाकुर जी अकेले आयगे लेकिन वो तो साथ मे माता सीता को भी लेकर आये है, इससे तो भोजन कम पड़ जायेगा।

अंतर यामी राम सब जानते थे, इसलिये कौतुक वश मुस्कराकर भक्त से उसकी चिंता का कारण पूछने लगे। भक्त ने कहा प्रभु कोई बात नहीं आप तो बस भोजन ग्रहण करिये, भगवान ने भोजन ग्रहण किया और जाने लगे, तब भक्त ने आग्रह किया प्रभु आप देर लगाते हो अगली बार जल्दी आना, भगवान उसे जल्दी आने का वचन दे अन्तर्ध्यान हो गये। 

अगली एकादशी पर भक्त गुरु जी से बोला आज थोड़ा ज्यादा सामान देना क्योकि वहां एक साथ दो भगवान आते है। गुरु जी हसने लगे उन्होने सोचा भोजन कम पड़ गया होगा, भगवान का तो बाहना कर रहा है। वह सारा सामान लेकर नदी किनारे पंहुचा और भोजन बनाकर ठाकुर जी को पुकारने लगा। 

भगवान तो शायद प्रतीक्षा मे ही बैठे थे इसलिये लक्ष्मण और सीता सहित तुरंत प्रगट हो गये। इसबार तीन भगवानो को देखकर वो फिर चिंतित हो गया। भगवान ने मुस्कराकर उसकी चिंता का कारण पूछा, तब भक्त कहने लगा प्रभु आप यह बताइये की मैने केवल आपका भोजन कराने का ठेका ले रखा है आपके परिवार का नहीं। 

उसकी इस सरलता पर भगवान हसने लगे, प्रभु को हस्ता देख उसने कहा कोई बात आप भोजन करो क्योकि आप मुझे बड़े प्यारे लगते हो। जब वह भोजन करके जाने लगे तो उसने प्रभु से कहा अगली बार आप कितने आओगे पहले ही बता दो ताकि उसी हिसाब से व्यवस्था की जाये, परन्तु भगवान मुस्कराये और अंतर्ध्यान हो गये          

Lord Rama bhakt aur Bhagwan

अगली एकादशी पर उसने कहा गुरु जी आज पिछली बार से अधिक सामान देना, क्योकि हर बार एक भगवान अधिक बड़ जाता है। गुरु जी को शंका हुई कही यह सामान बेचता तो नहीं इसका पीछा करना चाहिये। गुरु जी उसे सामान दिलाकर उसका पीछा करने लगे, वह नदी किनारे जाकर बैठ गया, और बिना भोजन बनाये यह विचार करने लगा की पहले भगवान को बुला कर देख लेना चाहिये की इस बार कितने आते है

वह भगवान को पुकारने लगा इस बार भगवान अपने पूरे दरबार के साथ प्रगट हो गये, जिसमे लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, हनुमान जी और माता सीता थी। सभी को देखकर वह चुपचाप एक कोने मे बैठ गया। भगवान ने पूछा आज भोजन नहीं बनाया, उसने कहा प्रभु भोजन बना कर क्या फायदा जब मुझे भोजन मिलना ही नहीं, इसलिये सामान पड़ा हुआ है, आप स्वयं बनाओ और भोग लगाओ। भगवान माता सीता से बोले आज भक्त नाराज है इसलिये तुम भोजन बनाओ।

उधर गुरु जी चुपचाप छिपकर देख रहे थे, की सामान तो एक और पड़ा है और वो एक स्थान पर चुपचाप बैठा है। गुरु जी को भगवान नहीं दिख रहे थे, तब वो अपने शिष्य के पास जाकर बोले की क्या बात है, तुम यहाँ क्यों बैठे हो। शिष्य बोला गुरु जी भोजन बना कर क्या फायदा जब मुझे मिलना ही नहीं, देखो यहाँ कितने भगवान है। 

गुरु जी बोले कहा है मुझे तो दिखाई नहीं दे रहे है, तब भक्त भगवान से बोला आप भी मेरे गुरु जी को दिखाई दो, भगवान बोले उन्हे नहीं दिखाई देंगे। भक्त बोला क्यों मेरे गुरु जी तो मुझसे भी अधिक विद्वान है, भगवान बोले तुम्हारे गुरु विद्वान है परन्तु तुम्हारी तरह सरल नहीं है, मै तो केवल सरल को ही मिलता हूँ

जब भक्त ने यह बात गुरु जी को बताई तो उनकी आखो मे आँसू आ गये और भगवान से क्षमा मांगने लगे, जिससे उनका ह्रदय निर्मल हो गया। तब भगवान ने उनको भी दर्शन दिये, तब गुरु अपने शिष्य के चरण पकड़ कर बोले आज तक गुरु के कारण शिष्यों को भगवान के दर्शन होते रहे हैं, परंतु आज मुझे अपने शिष्य के कारण भगवान के दर्शन हुए है।

अंत मे निष्कर्ष

सरलता ही भक्ति का सारइसलिये जो सरल होते है, भगवान उन्हे ही जल्दी प्राप्त हो जाते है। सरलता मे अहंकार नहीं होता परन्तु ज्ञान कभी कभी अहंकार उत्पन्न कर देता है। भगवान के निकट अहंकार और ज्ञान का कोई मोल नहीं होता, वो तो सिर्फ प्रेम के वशीभूत हो भक्त के वश मे हो जाते है। जहां सरलता होती वहां अहंकार नहीं होता है

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