Yumraj and Nachiketa

यम और नचिकेता एक अध्यात्मिक संवाद  

हमारी पौराणिक साहित्यो मे ऐसी बहुत सी कथाए है जो मानव जीवन के मूल आदर्शो को स्थापित करती है। मानव अपने मस्तिष्क मे उठने वाले हर प्रश्न का उत्तर चाहे वो आध्यात्मिक हो या सामाजिक इन्ही साहित्यो से प्राप्त कर सकता है। ऐसी ही एक कथा जो कठोपनिषद का अंग है 'यमराज और नचिकेता' का संवाद पर आधारित है। इसमे नचिकेता द्वारा यमराज से कुछ ऐसे प्रश्न किए गये है जिनका उत्तर हर वयक्ति कभी ना कभी अवश्य जानना चाहता है।  

नचिकेता का पिता द्वारा त्याग

नचिकेता एक संपन्न ब्राह्मण वाजश्रवा की संतान थे। एक बार वाजश्रवा ने ब्रह्मं प्राप्ति के लिए अपने समस्त मोह का त्याग करने का निश्चय किया। उन्होने एक यज्ञ का आयोजन किया और उसकी समाप्ति पर उन्होने अपनी समस्त संपत्ति और गायों को उपस्थित ब्राह्मणों को दान देना प्रारम्भ कर दिया। नचिकेता ने देखा उसके पिता अभी भी मोह को नहीं छोड़ पा रहे है, वे उन्ही गायों को दान कर रहे है जो बूढी और कमजोर है। 

नचिकेता ने अपने पिता के इस व्यवहार पर प्रश्न किया! हे पिता जब आप इन गायों के मोह को ही नहीं छोड़ पा रहे हो तो फिर आप मेरे मोह को कैसे छोड़ोगे, ब्रह्मं प्राप्ति के लिए आपको मेरा भी मोह छोड़ना होगा, इसलिए आप मेरा दान किसे करेगे। नचिकेता के बार-बार प्रश्न करने पर वाजश्रवा क्रोधित हो गए और उन्होने नचिकेता से कहां मै तुझे यमराज को दान करता हु। चूंकि ये शब्द यज्ञ के समय कहे गए थे, अतः नचिकेता को यमराज के पास जाना ही पड़ा।

यमराज के द्वार पर नचिकेता का आगमन

नचिकेता ने तीन दिन एवं तीन रातों तक यमराज के द्वार पर धैर्य पूर्वक उनकी प्रतीक्षा की। तीन दिन के बाद जब यमराज अपने महल से बाहर आए तो उन्होंने उस बालक की इस धीरज भरी प्रतीक्षा और उसके दृढ़ निश्चय से प्रसन्न होकर नचिकेता से तीन वरदान मांगने को कहा। तब नचिकेता ने यमराज को प्रणाम करके कहा, हे देव अगर आप मुझ पर प्रसन्न है और मुझे वरदान देना चाहते है तो पहला वरदान यह दीजिये कि मेरे पिता का जो मुझ पर क्रोध है वो शांत हो जाये और वो मुझे पुनः अपना ले।

यमराज ने तथास्तु कहा, और फिर दूसरा वर मांगने के लिए कहां। दूसरे वरदान के लिए नचिकेता ने कहां यह 'अग्नि' जो सभी यज्ञों का साधन है जिसके द्वारा अनन्त स्वर्ग-लोक की प्राप्ति का भी साधन है। इसलिए मै इसके समस्त रहस्यो को जानना चाहता हूँ ' यमराज नचिकेता की अल्पायु, तीक्ष्ण बुद्धि और उसकी जिज्ञासु प्रवृति को जानकर अति प्रसन्न हुए। 

उन्होंने कहा- 'यह अग्नि विराट रूप से जगत् की प्रतिष्ठा का मूल कारण है, इसके आह्वान के बिना कोई भी यज्ञ संपन्न नहीं हो सकता इसका मूल तत्व उसी प्रकार स्थित है जैसे ज्ञान विद्वानों की बुद्धिरूपी गुफा में स्थित होता है।' तब यमराज ने अग्नि की सभी गूढ़ विधाये नचिकेता को बताई और यह वरदान भी दिया आज से यह विद्या 'नचिकेताग्नि' के नाम से प्रसिद्ध होगी। 

तीसरे वरदान में नचिकेता ने यमराज से जीवात्मा का ज्ञान मांगा। यमराज नचिकेता को यह ज्ञान नहीं देना चाहते थे। परन्तु नचिकेता अपने निष्चय पर अडिग रहे और तब विवश होकर यमराज ने नचिकेता को जीवात्मा का ज्ञान प्रदान किया। 

यमराज द्वारा नचिकेता के प्रश्नो का उत्तर 

यमराज ने नचिकेता को जीवात्मा के विकास की चार अवस्थाएं बताई। वो अवस्थाये है 'हंस', 'वसु', 'होता', और 'अतिथि'। जब जीवात्मा उत्तरोत्तर अपना विकास करता जाता है तव ये सभी अवस्थाएं उसे प्राप्त होती जाती हैं। पहली विकास की अवस्था हंस है, जब जीवात्मा 'हंस' की तरह अपना जीवन व्यतीत करता है, जैसे हंस पानी में रहकर भी पानी में नहीं भीगता, उसी प्रकार जब जीवात्मा संसार में रहकर संसार में लिप्त नही होता तब वह इस अवस्था को सिद्ध करता है। यह उसकी पहली विकसित अवस्था कहीं जाती है। इस तरह का जीवन व्यतीत करने वाले जीव को कहा जाता है कि वह 'नर' देह में वास कर रहा है। इस अवस्था को ब्रह्मचर्य कहते है।

Yumraj and Nachiketa

इसके बाद दूसरी अवस्था आती है जो पहली अवस्था से अधिक विकसित होती है, इस अवस्था को 'वसु' की अवस्था कहा जाता है। यह वह अवस्था है जब मनुष्य 'वसु' की तरह अपना जीवन व्यतीत करता है, अर्थात् वह स्वयं मे ही वसता है तथा दूसरों को भी बसाता है, अर्थात वह स्वयं मे ही केंद्रित होकर बिना किसी मूल्य के दूसरों की हर प्रकार से जो संभव हो वह मदद करता है, मानो वह इस नर देह से भी एक उत्तम शरीर में वास कर रहा हो, इसे हम वर देह भी कहते हैं। यह गृहस्थ की अवस्था होती है।


तीसरी अवस्था 'होता' की आती है, यह पहली अवस्था से अधिक विकसित होती है। जिस प्रकार से हवन करते समय सामग्री को हवन में ही अर्पित करते है, उसी प्रकार जब मनुष्य अपने आप को समाज के लिए अर्पित कर देता है। तब उसका अपना कुछ भी नहीं है, इस भाव के साथ जब वह अपना सर्वस्व दूसरों के उपकार के लिए समर्पित करने लगे और वह प्रत्येक वस्तु को अपना न समझ कर परमात्मा की समझने लगे तथा त्याग की भावना को अपनाकर अपना जीवन जीने लगे, तब यह अवस्था सिद्ध होती है। यह 'ऋत देह' अवस्था भी कहलाती है। 'ऋत' अर्थात 'निष्पक्ष'। इस अवस्था में जीव समझ जाता है कि संसार के विषय 'ऋत' नहीं हैं, सिर्फ परमात्मा ही 'ऋत' है, निष्पक्ष सत्य केवल परमात्मा ही है। इस अवस्था को वानप्रस्थ की अवस्था कहा जाता हैं।

चौथी अवस्था 'अथिति' होती है। यह सबसे अधिक विकसित अवस्था होती है। जब मनुष्य इस देह मे जीवात्मा के वास को अथिति की तरह समझने लग जाता है। तब वह यह जान जाता है की यह शरीर स्थाई नहीं है और तभी वह अपने ज्ञानरूपी धन से इस समाज का घूम-घूम कर उपकार करने लगता है। वह कहीं पर भी स्थायी रूप से नहीं ठहरता और पूर्ण रूप से स्वयं को परमात्मा को ही समर्पित कर देता है, तब वह अत्यंत ऊँचा उठ जाता है और इस अवस्था को सिद्ध करता है। इसे व्योमदेह भी कहते हैं। इस अवस्था को संन्यास की अवस्था कहते है।

इस प्रकार से जो जीव अपनी आत्मा को रथी और इस देह को उसका रथ समझकर अपने जीवन को चारों आश्रमों की यात्रा मानकर पूर्ण करता है, वही जीवात्मा 'ज्ञानात्मा' से 'महानात्मा' और फिर 'महानात्मा' से  'शान्तात्मा' को प्राप्त हो जाता है। उसी में ही ये तीनों नचिकेत अग्नियां प्रदीप्त हो जाती हैं, और वही 'ब्रह्मयज्ञ' के वास्तविक अर्थ को समझ जाता है। 

अंत मे निष्कर्ष 

नचिकेता एक प्रभावी चरित्र है, नचिकेता हिंदू धर्म के पौराणिक चरित्रों में सबसे प्रभावशाली पात्रों में से एक है। इसलिए एक बार स्वामी विवेकानंद ने भी कहा: था "अगर मुझे नचिकेता के समान दृढ़ विश्वास वाले दस या बारह साधक मिल जाए हैं, तो मैं इस देश के विचारों और उसके विश्वास को एक नए दिशा प्रदान कर सकता हूं।"

Post a Comment

Plz do not enter any spam link in the comment box.

और नया पुराने