भारतवर्ष अनेको महापुरषों और विद्वानों का देश रहा है। जिन्होने समय-समय पर अपने ज्ञान, भक्ति और दर्शन द्वारा समाज को एक नई दिशा प्रदान की है। 

ऋषि अष्टावक्र और  राजा जनक की कहानी।

ऋषि अष्टावक्र और  राजा जनक की कहानी।

ऋषि अष्टावक्र उन महान विभूतियों मे से एक है जिन्होने कहां सत्य जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करना चाहिए। शास्त्रों मे वर्णित ज्ञान को वो मात्र जीवन शैली को परिभाषित करने और नियमों से ही सम्बंधित मानते थे। मानव समाज को उनकी अमूल्य निधि 'अष्टावक्र गीता' है जो अद्वैत वेदान्त के सिद्धांत पर आधारित एक ग्रन्थ है।  

यह मुख्यतः ऋषि अष्टावक्र और राजा जनक के संवाद के रूप में वर्णित है। भगवद्गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र के सामान अष्टावक्र गीता भी एक अमूल्य ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में ज्ञान, वैराग्य, मुक्ति और समाधिस्थ योग और उनकी दशाओ का सविस्तार वर्णन किया गया है। 

ऋषि अष्टावक्र की जन्म कथा 

ऋषि अष्टावक्र की जन्म कथा भी काफी विचित्र है। उद्दालक ऋषि के एक शिष्य का नाम कहोड़ था। कहोड़ को सम्पूर्ण वेदों और शास्त्रों का ज्ञान देने के उपरांत उद्दालक ऋषि ने उनके साथ अपनी कन्या सुजाता का विवाह कर दिया। कुछ दिनों के पश्चात सुजाता गर्भवती हो गई। 

कहोड़ ऋषि प्रतिदिन अपनी पत्नी को वेदो का अर्थ समझाते थे जिसे प्रतिदिन गर्भ के भीतर उपस्थित बालक सुनता था। एक दिन गर्भ से बालक ने कहा कि पिताजी! आप वेद का गलत पाठ कर रहे हैं। ऋषि कहोड़ ने इस बात को अनसुना कर दिया। अगले दिन जब कहोड़ पुनः वेद पाठ करने लगे तब फिर गर्भ मे उपस्थित बालक ने कहा हे पिता! आप वेद का गलत पाठ कर रहे हैं। 

यह सुनते ही कहोड़ क्रोधित होकर बोले कि तू अभी गर्भ मे ही है और मेरा अपमान कर रहा है, गर्भ से ही तेरी बुद्धि वक्र है इसलिये तू आठ स्थानों से वक्र (टेढ़ा) हो जाये। कहोड़ ऋषि को ज्ञान तो था परंतु वह अहंकार का त्याग नहीं कर पाय थे। अष्टावक्र का कोई बड़ा अपराध नहीं था, उन्होने सिर्फ अपना मत प्रस्तुत किया था

एक दिन ऋषि कहोड़ राजा जनक के दरबार में जा पहुँचे। वहाँ आचर्य बंदी से शास्त्रार्थ में उनकी हार हो गई। आचर्य बंदी से हारने वाले को जल समाधी लेनी पड़ती थी। इसलिए हार हो जाने के फलस्वरूप उन्हें जल में डुबा दिया गया। इस घटना के पश्चात अष्टावक्र का जन्म हुआ। पिता के न होने के कारण वह अपने नाना उद्दालक को अपना पिता और अपने मामा श्‍वेतकेतु को ही अपना भाई समझते थे।


एक दिन जब वह ऋषि उद्दालक की गोद में बैठे हुए थे तो उसके मामा श्‍वेतकेतु ने उसे अपने पिता की गोद से खींचते हुये कहा कि हट यहाँ से, यह तेरे पिता का गोद नहीं है। अष्टावक्र को यह बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने तत्काल अपनी माता के पास आकर अपने पिता के विषय में पूछा। माता ने अष्टावक्र को सारी बातें सच-सच बता दीं।

Ashtavakra and Raja Janak

अष्टावक्र का राजा जनक के दरबार पर आगमन


अपनी माता की बातें सुनने के पश्‍चात् अष्टावक्र अपने मामा श्‍वेतकेतु के साथ आचर्य बंदी से शास्त्रार्थ करने के लिये राजा जनक की यज्ञशाला में जा पहुँचे। वहाँ द्वारपालों ने उनकी अल्पायु को देखते हुये उन्हे यज्ञशाला के भीतर जाने की आज्ञा नहीं दी। इस पर अष्टावक्र ने कहां हे द्वारपाल! केवल बाल श्वेत हो जाने या अवस्था अधिक हो जाने से कोई व्यक्ति ज्ञानी नहीं बन जाता। 

ज्ञान की साधना करने वाला ही वृद्ध और महत्त होता है, जिसे वेदों का ज्ञान हो और जो बुद्धि में तेज हो वही वास्तव में बड़ा होता है। इतना कहकर वे राजा जनक की सभा में जा पहुँचे और आचर्य बंदी को शास्त्रार्थ के लिये ललकारने लगे। लेकिन बालक अष्टावक्र को देखकर सभी सभासद जोर-जोर से हंसने लगे। उन्हें हंसता देख अष्टावक्र भी जोरों से हंसने लगे।

महाराज जनक इस असामान्य स्थिति में सिंहासन से उठकर अष्टावक्र से बोले हे बालक ब्राह्मण! सभासदो की हंसी तो मेरी समझ मे आती है, लेकिन आप क्यों हंस रहे हो? तब अष्टावक्र ने कहा– ‘मेरे हाड़-मांस की वक्रता पर हंसने वालों की वक्र-बुद्धि पर मैं हंस रहा हूं. ये सभी लोग मानसिक वक्रता से पीड़ित हैं और ये विद्वान् तो कतई नहीं हो सकते, इसीलिए आपकी सभा मे इन मूर्खो को देखकर मुझे हंसी आ गयी है। 

राजा जनक ने धैर्य पूर्वक कहा, ‘हे बालक ब्राह्मण! आपका अभिप्राय क्या है...अष्टावक्र ने उत्तर दिया, ‘ये सभी चमड़े के पारखी हैं, बुद्धि के नहीं. मन्दिर के टेढ़े होने से आकाश टेढ़ा नहीं होता, और घड़े के फूटने से आकाश नहीं फूटता। यह जो भीतर बसा है इसकी तरफ तो देखो वह निर्विकार है और ज्ञानी पुरुष आकाश सदृश ही निर्विकार होते हैं। बालक के मुख से इस ज्ञानपूर्ण बात को सुनकर सभी सभासद आश्चर्यचकित हुए और लज्जित भी उन्हें अपनी मूर्खता पर बेहद पश्चाताप हुआ। 

ऋषि अष्टावक्र और आचार्य बंदी का शास्त्रार्थ

अष्टावक्र के उत्तरों को सुकर राजा जनक प्रसन्न हो गये और उन्हें बंदी के साथ शास्त्रार्थ की अनुमति प्रदान कर दी। बालक अष्टावक्र ने अपने ज्ञान और तर्को द्वारा आचर्य बंदी को परास्त कर दिया। बंदी के परास्त हो जाने पर उनके द्वारा शास्त्र जनित ज्ञान के अंहकार पर अपना तर्क देते हुए अष्टावक्र कहते है संपूर्ण ज्ञान अहंकार को नष्ट कर देता है। 

अपूर्ण ज्ञान ही अहंकार को जन्म देता है। शास्त्र को शस्त्र नहीं बनाना चाहिए। शास्त्र जीवन का प्रसार करते है और शस्त्र जीवन का अंत। बंदी को अपनी भूल का एहसास हो गया तब उन्होंने कहा कि वह वरुण के पुत्र है और उसने सब हारे ब्राह्मणों को अपने पिता के पास भेज दिया था। वह उन सभी को अभी वापस बुला लेगे। ऐसा ही हुआ और सभी हारे हुए ब्राह्मण वापस आ गए। उन्हीं में अष्टावक्र के पिता कहोड़ भी थे। अष्टावक्र पिता को पाकर बेहद हर्षित हुए। 

अंत मे निष्कर्ष

ज्ञान आयु की सीमाओं मे नहीं बंधता वो सवतंत्र होता है। इसलिये शरीर, मन और बुद्धि के मोह का भी उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसका सबसे बड़ा उदहारण ऋषि अष्टावक्र ही है। जिन्होने कहा सत्य जैसा हो उसे उसी रूप मे स्वीकार करो, उनकी सबसे बड़ी देन समाज को अष्टावक्र गीता ही है, जिसमे उन्होने सत्य और उसके भिन्न भिन्न स्वरूपों को व्यक्त किया है, जो आज भी प्रासांगिक है। 

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