Markandaya Rishi Ki Katha

ऋषि मार्कण्डेय का जीवन परिचय


महर्षि भृगु के परिवार में जन्में महान ऋषि मार्कण्डेय के विषय में हमने कई बार सुना होगा। भगवान शिव और ब्रह्मा जी को अपना अराध्य देव मानने वाले मार्कण्डेय ऋषि का जिक्र विभिन्न पुराणों में कई बार किया गया है।महामृत्युंजय मंत्र की रचना महर्षि मार्कण्डेय द्वारा संसार को एक सर्वोत्तम भेट है।  

इसके अतिरिक्त मार्कण्डेय पुराण की रचना जो मार्कण्डेय ऋषि और संत जैमिनी के बीच हुए संवाद पर आधारित है। इसके अलावा भागवत पुराण के भी बहुत से अध्याय मार्कण्डेय ऋषि की प्रार्थनाओं और संवादों पर ही आधारित हैं। आज भी हिन्दू मुख्यधारा की लगभग हर परंपरा मार्कण्डेय ऋषि के उल्लेख के बिना अधूरी है।

मार्कण्डेय ऋषि का संपूर्ण जीवन अपने आप में एक शिक्षा है, इनके बारे में बहुत सी बातें ऐसी हैं जो हम नहीं जानते। उनके जीवन से जुड़ी कुछ घटनाए ऐसी है जो एक साधारण मनुष्य को ईश्वर और उसकी सत्ता के प्रति विश्वास को और दृढ़ करती है। 

मार्कण्डेय ऋषि को क्यों मिला अमरता का वरदान।


मार्कण्डेय ऋषि के जीवन की कथा भी ईश्वर और भक्त के बिच एक अटूट विश्वास का ही प्रमाण है। ऋषि मृकंडू और उनकी पत्नी के कोई संतान नहीं थी। पुत्र रत्न की उत्पति के उद्देश्य से उन दोनों ने भगवान शिव से वरदान पाने के लिए उनकी अराधना प्रारंभ की।

उनकी अराधना से भगवान शिव प्रसन्न तो हुए किंतु विधाता ने उनके भाग्य में संतान सुख नहीं लिखा था। इसलिए भगवान शिव ने उनके सामने एक शर्त रखी कि उन्हें एक ऐसा पुत्र चाहिए जो बेहद बुद्धिमान और विलक्षण प्रतिभा का तो हो, लेकिन उसकी भाग्य में अल्पायु में ही मृत्यु लिखी हो या फिर एक ऐसा पुत्र जो बुद्धिहीन हो लेकिन दीर्घायु हो। 


मृकंडू और उनकी पत्नी मरुदमती ने शिव से अल्पायु लेकिन बुद्धिमान पुत्र की मांग की और शिव ने उन्हें वरदान के रूप में मार्कण्डेय जैसा विलक्षण बालक प्रदान कर दिया। मार्कण्डेय की नियती में 16 वर्ष की आयु में ही मृत्यु लिखी थी। जैसे-जैसे मार्कण्डेय की उम्र बढ़ती गई, शिव के प्रति उनका समर्पण भी बढ़ता गया। 

मार्कण्डेय की बढ़ती उम्र को देखकर उनके पिता निरंतर चिंतित रहने लगे। एक दिन मार्कण्डेय ने अपने पिता से उनकी चिंता का कारण पूछा जिस पर मृकंडू ऋषि ने अपने पुत्र मार्कण्डेय से कहा की भगवान शिव के वरदान के अनुसार तुम अल्पायु हो और 16 वर्ष की आयु में ही तुम मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे। यही मेरी चिंता का कारण है। 

Markandya Rishi ki Katha

मार्कण्डेय की शिव अटूट भक्ति


पिता द्वारा चिंता बताने पर भी मार्कण्डेय बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए और भगवान शिव पर अटूट विश्वास रखते हुए निरंतर उनकी पूजा करने लगे। जिस दिन उनकी मर्त्यु निश्चित थी, उस दिन भी वे शिव की पूजा में ही व्यस्त थे। 

ऋषि मार्कण्डेय पूरे समर्पण भाव के साथ शिव की पूजा में लीन थे जब यमदूत उन्हें लेने आए तो वह उनकी पूजा में विघ्न डाल पाने में सफल नहीं हुए। यमदूत को असफल होते देख स्वयं यमराज को मार्कण्डेय को लेने के लिए धरती पर आना पड़ा।

यमराज को अपने सामने उपस्थित देख मार्कण्डेय ऋषि ने महामृत्युंजय मंत्र की रचना की और उसका जाप करने लगे। यमराज ने एक फंदा मार्कण्डेय की गर्दन में डालने की कोशिश की लेकिन वह फंदा शिवलिंग पर चला गया।
                                                                        

यमराज की इस हरकत पर शिव को क्रोध आ गया और वह अपने रौद्र रूप में यमराज के समक्ष उपस्थित हो गए। भगवान शिव को क्रोधित देख यमराज अत्यंत भयभीत हो गए और क्षमा याचना करने लगे। शिव ने बस एक शर्त पर यमराज को छोड़ा कि उनका ये भक्त (ऋषि मार्कण्डेय) अब से अमर रहेगा।
 
इस घटना के बाद से शिव को कालांतक भी कहा जाने लगा, जिसका अर्थ है काल यानि मौत का अंत करने वाला। सती पुराण में भी उल्लिखित हैं कि स्वयं पार्वती ने भी मार्कण्डेय ऋषि को यह वरदान दिया था कि केवल वही उनके वीर चरित्र को लिख पाएंगे। 

इस लेख को दुर्गा सप्तशती के नाम से जाना जाता है, जो कि मार्कण्डेय पुराण का एक अहम भाग है। भागवत पुराण के अनुसार एक बार भगवान नारायण मार्कण्डेय के पास एक ऋषि के रूप मे गए और उनसे वरदान मांगने को कहा। तब मार्कण्डेय ऋषि ने उनसे कहा कि वे पहले अपनी चमत्कारी शक्तियां उन्हें दिखाएं। 

Markandya Rishi ki Katha

नारायण का बालमुकुंद रूप।


उनकी इस इच्छा को पूरा करने के लिए भगवान विष्णु बालक के रूप में एक पत्ते पर लोटते हुए अवतरित हुए और कहा कि ये ही समय और मृत्यु है। तब मार्कण्डेय उस बालक के मुख के अंदर चले गए और वहां जाकर उन्होंने ब्रह्मांड का अद्भुत नजारा देखा। 

उस बालक के मुख से पेट की तरफ बढ़ते हुए उन्हें झरने, पहाड़, सागर सब कुछ दिखाई दिया। ऋषि मार्कण्डेय को समझ नहीं आ रहा था कि वह यहां से बाहर कैसे निकलें तो उन्होंने पेट के भीतर रहते हुए ही भगवान विष्णु की आराधना प्रारंभ कर दी।

जैसे ही उन्होंने विष्णु भगवान को याद करना शुरू किया वैसे ही वह सुरक्षित तरीके से उस बालक के शरीर में से बाहर निकल आए और बाहर निकलने के बाद उन्होंने लगभग 1000 वर्षो तक श्री विष्णु का सानिध्य प्राप्त किया। इस घटना के बाद मार्कण्डेय ऋषि ने अपने अनुभव के आधार पर बालक मुकुंदष्टकम की रचना की थी।

अंत मे निष्कर्ष


मार्कण्डेय ऋषि को अमरता का वरदान है, वो सृष्टि के अंत के बाद भी जीवित रहते है।अगर इंसान मे दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो वह ईश्वर को भी विवश कर देता है सृष्टि का विधान बदलने के लिये। मार्कण्डय ऋषि की कथा उसी दृढ़ विश्वास का ही उदहारण है।

1 टिप्पणियाँ

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  1. लेख बहुत ही सुंदर है बस एक ही त्रुटि है जिसे ठीक करना चाहूंगी। बालक मार्कण्डेय ने महामृत्युञ्जय मन्त्र का जाप करते हुए शिव आराधना की और जब यमराज उनके प्राण हरने समक्ष आये तब बालक ने अपने मन का उद्गार एक स्तोत्र के रूप में गाया जिसे महामृत्युंजय स्तोत्रम या चंद्रशेखराष्टकम भी कहते हैं।

    सूचना होकि मन्त्र छोटे होते हैं और स्तोत्र अपेकक्षाकृत दीर्घ होते हैं
    महामृत्युंजय मंत्र का वर्णन ऋग्वेद( 7.59.12) में किया गया है, अतःविदित हो।
    साभार ऋग्वेद

    अष्टकम् संस्कृत में आठ छंदों की एक काव्य रचना को कहा जाता है, जिसे आमतौर पर छंदों के सेट के रूप में व्यवस्थित किया जाता है।

    चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर
    चन्द्रशेखर पाहि माम ।
    चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर
    चन्द्रशेखर रक्ष माम ॥१॥
    रत्नसानुशरासनं रजताद्रिशृङ्गनिकेतनं
    सिञ्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युताननसायकम ।
    क्षिप्रदग्धपुरत्रयं त्रिदिवालयैरभिवन्दितं
    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥२॥
    पञ्चपादपपुष्पगन्धपदांबुजद्वयशोभितं
    भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रहम ।
    भस्मदिग्धकलेबरं भव नाशनं भवमव्ययं
    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥३॥
    मत्तवारणमुख्यचर्मकॄतोत्तरीयमनोहरं
    पङ्कजासनपद्मलोचनपूजितांघ्रिसरोरुहम ।
    देवसिन्धुतरङ्गसीकर सिक्तशुभ्रजटाधरं
    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥४॥
    यक्षराजसखं भगाक्षहरं भुजङ्गविभूषणं
    शैलराजसुतापरिष्कृतचारुवामकलेबरम ।
    क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं
    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥५॥
    कुण्डलीकृतकुण्डलेश्वर कुण्डलं वृषवाहनं
    नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुवनेश्वरम ।
    अन्धकान्तकमाश्रितामरपादपं शमनान्तकं
    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥६॥
    भेषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं
    दक्षयज्ञविनाशनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम ।
    भुक्तिमुक्तिफलप्रदं सकलाघसंघनिबर्हणं
    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥७॥
    भक्तवत्सलमर्चितं निधिक्षयं हरिदंबरं
    सर्वभूतपतिं परात्परमप्रमेयमनुत्तमम ।
    सोमवारिदभूहुताशनसोमपानिलखाकृतिं
    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥८॥
    विश्वसृष्टिविधायिनं पुनरेव पालनतत्परं
    संहरन्तमपि प्रपञ्चमशेषलोकनिवासिनम ।
    कीडयन्तमहर्निशं गणनाथयूथसमन्वितं
    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥९॥
    मृत्युभीतमृकण्डुसूनुकृतस्तवं शिवसन्निधौ यत्र कुत्र च यः पठेन्न हि तस्य मृत्युभयं भवेत। पूर्णमायुररोगतामखिलार्थसंपदमादरात चन्द्रशेखर एव तस्य ददाति मुक्तिमयत्नतः १०॥ इति श्रीचन्द्रशेखराष्टकस्तोत्रं संपूर्णम ॥

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