जीवन संघर्ष का वो मार्ग है जिस पर मनुष्य सम्पूर्ण जीवन चलता रहता है परन्तु वो मार्ग कभी समाप्त नहीं होता। क्या निरंतर चलने वाले इस मार्ग पर चलते हुए हम कभी वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त कर सकते है। वो लक्ष्य क्या है? जिसे हम प्राप्त करना चाहते है। हम सभी को अपने जीवन काल मे इस प्रश्न का सामना तो एक बार अवश्य ही करना पड़ता है। हमारा शरीर दो भावो से निर्मित होता है भौतिक और आध्यात्मिक। 

आत्मसंतोष की भावना कैसे जाग्रत करे।

भौतिक भाव शरीर और उसकी आवश्यकताओ तक ही सिमित रहता है जिसमे कोई स्थिरता नहीं होती यह समय के साथ अपने अंत को प्राप्त हो जाता है आध्यात्मिक भाव आत्मा का भाव है जो स्थिर है जिस पर समय का कोई प्रतिबंद नहीं होता जो सदैव नवीन बना रहता है ये दोनों भाव मनुष्य को कर्म पथ पर निरंतर चलने की प्रेरणा देते है इन दोनों मे अंतर क्या है और इनकी पहचान कैसे कर सकते है ऐसा ही प्रश्न अर्जुन ने श्री कृष्ण से करुक्षेत्र मे किया था जब भगवान उन्हे कर्म योग और ज्ञान योग का अंतर बता रहे थे

निष्काम कर्म ही आत्मसंतोष की भावना का मार्ग है।  


निरंतर कर्म करना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके बिना जीवन संभव ही नहीं है हम अपने कर्म मे किस भाव का उपयोग करते है, यह हमारे कर्म की दिशा और उसके परिणाम को निर्धारित करता है। भौतिक भाव हमारे कर्म को स्वयं की इच्छाओं और आकांछाओ तक ही सीमित कर देता है। जितनी उसकी इच्छाएं बढ़ती जाती है उतना ही वह स्वयं से दूर होता जाता है। जितना वह स्वयं से दूर होता जाता है उतना ही मन मे असंतोष की भावना प्रबल होती जाती है इसके विपरीत आध्यात्मिक भाव हमारे कर्म को स्वयं की परिधि से बहार निकालकर स्वयं से हमारा परिचय करता हैजहा मन मे शांति और आत्मसंतोष की भावना जाग्रत होती है वास्तव मे यही मानव जीवन की जरुरत है जीवन की यही सत्यता हमे अध्यात्म की ओर आकर्षित करती है 
                                                                   

जीवन का संतुलन ही भौतिक भाव को आध्यात्मिक भाव मे परिवर्तित कर सकता है यह संतुलन तभी संभव है जब हम अपनी आवयश्कताओ की सीमाओं को जान लेते है और उसका निर्धारण तय कर देते है हमारी आवयश्कताओ की तो कोई सीमा नहीं होती, क्योकि हमारा मन कुछ ना कुछ प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयास करता ही रहता है जब तक हमे इन्ही आवयश्कताओ की सीमा का ज्ञान नहीं होगा तब तक इन्हे प्राप्त करने के लिये भटकते रहेगें, इन सीमाओं का निर्धारण हमे भटकने से रोक सकता है निरन्तर प्रयास और विवेक के साथ सही विकल्पों का चुनाव हमे स्वयं से ऊपर उठने और स्वयं को समाज और नैतिक मूल्यों से जोड़ने मे साहयक होता है जीवन का यही संतुलन ही हमे मानव मूल्यों की गहराई को देखने मे सहायता कर सकता है, जो मानव को आत्मसंतोष की ओर अग्रसर करता है और जीवन को एक नई दिशा प्रदान करता है। 

अंत मे निष्कर्ष 


मनुष्य को अपनी आवश्यकताओ की पूर्ति के लिये संघर्ष तो करना ही पड़ता है, यही उसका कर्म है और कर्म के बिना जीवन संभव नहीं है। परन्तु कर्म की दिशा का सवरूप तय करना ही हमारे विवेक और ज्ञान पर निर्भर करता है। कर्म को सही दिशा मे ले जाना ही आत्मसंतोष की भावना को प्राप्त करने मे सहायक होता है, और यही मानव के जीवन की वास्तविक पूंजी है।

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