मानव जीवन अपूर्णता के साथ प्रारम्भ होता है। जिसे मानव को अपने कर्मो द्वारा उस अपूर्णता को पूर्णता मे परिवर्तित करता है। इसके लिए उसे अपने अंदर दो गुणों को सामान रूप से जाग्रत रखना पड़ता है। इसमे एक गुण गुरु का होता है और दूसरा शिष्य का, क्योकि मनुष्य को अपना सामाजिक दायित्व निभाने के अपने ज्ञान द्वारा समाज को नई दिशा प्रदान करनी पड़ती है और अपनी आध्यात्मिक और सामाजिक उन्नत्ति के लिए शिष्य के सामान ज्ञान प्राप्त करना पड़ता है।  

महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर की जीवन कथा

संत ज्ञानेश्वर की जीवन कथा 


भारत वर्ष को संतो की भूमि कहा जाता है, यहाँ की धरती पर अनेक संतो का जन्म हुआ है। इन्ही में से एक संत है ज्ञानेश्वर जिनका का जन्म 1275 ईस्वी में महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में पैठण के पास गोदावरी नदी के तट पर स्थित अपेगांव में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन विट्ठल पंत और रुक्मिणी बाई के यहाँ हुआ था। उनके पिता एक ब्राह्मण थे।

विवाह के कई वर्ष बाद पिता के किसी संतान को जन्म न देने पर पत्नी रुक्मिणी बाई की सहमति से वे सांसारिक मोह को छोड़कर काशी चले गए और उन्होंने सन्यासी जीवन धारण कर लिया। इस दौरान उनके पिता विट्ठल पंत ने स्वामी रामानंद जी को अपना गुरु बनाया था।

उसके कुछ समय बाद, जब संत ज्ञानेश्वर जी के गुरु स्वामी रामानंद जी अपनी सम्पूर्ण भारत यात्रा के दौरान उनके गांव आलंदी पहुँचे, तो वहां विट्ठल पंत की पत्नी से मिले और स्वामी जी ने उन्हें एक संतान प्राप्ति का आशीर्वाद दिया। जिसके बाद रुक्मिणी बाई ने स्वामी रामानंद जी को अपने पति विट्ठल पंत के तपस्वी जीवन को अपनाने के बारे में बताया, जिसके बाद स्वामी रामानंद जी ने विट्ठल पंत को फिर से गृहस्थ जीवन अपनाने का आदेश दिया।

इसके बाद विट्ठल पंत को संत ज्ञानेश्वर, निवृत्तिनाथ, सोपानदेव और 1 पुत्री मुक्ताबाई संतान के रूप में प्राप्त हुऐ। ज्ञानेश्वर जी के पिता विट्ठल पंत को तपस्वी जीवन छोड़कर गृहस्थ जीवन में पुन: अपनाने के कारण समाज से बहिष्कृत कर दिया और उनका बहुत अपमान किया। जिसके बाद ज्ञानेश्वर के माता-पिता इस अपमान का बोझ नहीं उठा सके और उन्होंने त्रिवेणी में डूब कर अपनी जान दे दी।

माता-पिता की मृत्यु के बाद संत ज्ञानेश्वर और उनके सभी भाई-बहन अनाथ हो गए। वहीं लोगों ने उन्हें गांव में अपने घर में रहने भी नहीं दिया, जिसके बाद संत ज्ञानेश्वर बचपन में ही अपना पेट भरने के लिए भीख मांगने को मजबूर हो गए।

संत ज्ञानेश्वरजी के शुद्धिपत्र की प्राप्ति


बहुत संघर्षों के बाद, संत ज्ञानेश्वर जी के बड़े भाई निवृतिनाथ जी गुरु गेनेनाथ से मिले। वह अपने पिता विट्ठल पंत जी के गुरु थे, उन्होंने निवृत्तिनाथ जी को योग मार्ग की दीक्षा और कृष्ण की पूजा का उपदेश दिया, इसके बाद निवृत्तिनाथ जी ने अपने छोटे भाई ज्ञानेश्वर को भी दीक्षा दी।

इसके बाद बड़े-बड़े विद्वानों और पंडितों से शुद्धिपत्र लेने के उद्देश्य से संत ज्ञानेश्वर अपने भाई के साथ उनके पैतृक गांव पैठण पहुंचे। वहीं दोनों कई दिनों तक इसी गांव में रहे, दोनों के इस गांव में रहने की कई चमत्कारी कहानियां भी प्रचलित हैं।

बाद में संत ज्ञानेश्वर जी की चमत्कारी शक्तियों को देखकर गांव के लोग उनका सम्मान करने लगे और पंडितों ने उन्हें शुद्धिपत्र भी दिया।

संत ज्ञानेश्वर जी की प्रसिद्ध कृतियाँ 


जब संत ज्ञानेश्वर जी केवल 15 वर्ष के थे, तब वे भगवान श्रीकृष्ण के महान उपासक और योगी बन गए थे। उन्होंने अपने बड़े भाई से दीक्षा ली और हिंदू धर्म के सबसे महान महाकाव्यों में से एक, भगवत गीता पर एक टिप्पणी लिखी, एक वर्ष के भीतर उनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक "ज्ञानेश्वरी" का नाम उनके नाम पर रखा गया।

"ज्ञानेश्वरी" पुस्तक मराठी भाषा में लिखी गई एक अनूठी पुस्तक मानी जाती है। आपको बता दें कि इस प्रसिद्ध ग्रंथ में संत ज्ञानेश्वर जी ने लगभग 10 हजार श्लोक लिखे हैं। इसके अलावा संत ज्ञानेश्वर जी ने 'हरिपथ' नामक ग्रंथ की रचना की है, जो भागवत मत से प्रभावित है।

इसके अलावा संत ज्ञानेश्वर जी द्वारा रचित अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ योगवशिष्ठ टीका, चंगदेवपाष्टी, अमृतानुभव आदि हैं।

संत ज्ञानेश्वर जी की मृत्यु 


मात्र 21 वर्ष की आयु में 1296 ई. में भारत के महान संत और प्रसिद्ध मराठी कवि संत ज्ञानेश्वर जी ने सांसारिक मोह का त्याग कर समाधि ली। उनकी समाधि आलंदी के सिद्धेश्वर मंदिर परिसर में स्थित है। साथ ही उन्हें उनकी शिक्षाओं और उनके द्वारा रचित महान ग्रंथों के लिए आज भी याद किया जाता है।

संत ज्ञानेश्वर का शिष्यों को आलू का उदहारण देना 


संत ज्ञानेश्वर के आश्रम मे दूर-दूर से हजारों शिष्य शिक्षा ग्रहण करने आया करते थे। एक दिन गुरु जी को आभास हुआ उनके शिष्यों मे ईर्ष्या भाव उत्पन्न हो रहा। गुरू आश्रम कुछ शिष्य एक दूसरे से ईर्ष्या की भावना रखने लगे थे। 

महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर की जीवन कथा

गुरु जी अपने शिष्यों को इस दुर्भावना से मुक्त करने के लिये सभी शिष्यों को अपने पास बुलवाया और उन्हें आदेश देकर कहा- “शिष्यों कल प्रातः काल तुम सभी अपने-अपने साथ आलू लेकर आएंगे और प्रत्येक शिष्य उतने ही आलू लाएगा जितने लोगो से वह ईर्ष्या करता है और प्रत्येक आलू पर उन सभी व्यक्तियों का नाम लिखोगे। अगली सुबह सभी छात्र गुरु की आज्ञा की आज्ञा के अनुसार आश्रम मे आलू लेकर आये, किसी के हाथों में पांच तो किसी के हाथों में छह आलू थे और सभी ने ईर्ष्या करने वाले व्यक्तियों के नाम उन पर लिखे थे।

गुरू जी ने अगला आदेश देकर कहा- “शिष्यों तुम सब अगले सात दिनों तक ये सभी आलू अपने पास रखोगे अब से तुम जहां भी जाओगे ये सारे आलू तुम्हारे साथ ही होने चाहिए, इसलिए खाते-पीते, सोते-जागते हर समय ये सब आलू अपने साथ ही रखना।” सभी शिष्य, गुरूजी के इस व्यवहार से चकित थे, परन्तु गुरु की आज्ञा का उंलघन नहीं कर सकते थे इसलिए गुरू जी का आदेश तो उन्हें मानना ही पड़ा। 

अब से वे जहाँ पर भी जाते उन सभी आलूओ को हमेशा साथ ही रखते थे। परन्तु तीन चार दिन बीतने के बाद आलूओ से सड़ने की बदबू आने लगी, सभी उस बदबू से बहुत परेशान थे और किसी तरह सात दिन बीतने का इंतजार कर रहे थे। जैसे ही गुरु आदेशानुसार सात दिन की अवधि समाप्त हुई सभी ने गुरू जी के पास जाकर आलू और ईर्ष्या का भेद समझाने को कहा।                     
 

गुरू जी ने अपने शिष्यों को इसका भेद समझाते हुए कहा- शिष्यों, जब सात दिनो में ही इन आलूओ से बदबू आनी शुरू हो गयी है और तुम सबको ये बोझ लगने लगे अब जरा यह सोचो तुम जिन मित्रों से, सम्बन्धियों से या जिन व्यक्तियों से ईर्ष्या करते हैं, उनका कितना बड़ा बोझ हमेशा तुम्हारे अपने मन पर रहता होगा। 

ईर्ष्या मन पर अनावश्यक बोझ बनाकर रखती है, जिसके कारण आलूओं की तरह ही एक समय तुम्हारे अपने मन से भी बदबू आनी शुरू हो जायगी। इसलिये हमेशा अपने मन में एक बात की गाँठ बांध लो यदि तुम किसी से प्रेम नहीं कर सकते या प्यार नहीं बाँट सकते तो फिर नफरत या ईर्ष्या भी मत करना। यही वो सबसे बड़ा गुण है जिसे मन मे धारण करने से आपका मन हमेशा खुश, स्वच्छ और हल्का बना रहेगा।’ 

सारे शिष्य, गुरू जी की बात बहुत ही ध्यान से सुन रहे थे और उन्होंने गुरु की शिक्षा को आत्मसात करते हुए, बदबूदार आलुओं को तुरंत फेंक दिया और अपने मन से ईर्ष्या को भी हमेशा के लिए उसी प्रकार निकाल फेंका।

अंत मे निष्कर्ष 


मनुष्य की उन्नति के मन का सवच्छ होना बहुत ही आवश्यक है। जब तक हम दुसरो के प्रति घृणा और द्वेष को रखेगे तब तक एक स्वस्थ समाज का निर्माण नहीं हो सकता क्योकि ये सब चीजे मनुष्य का विकास नहीं करती इसीलिये संत ज्ञानेश्वर ने अपने शिष्यों को एक उदहारण के जरिये इस बात को समझाया जो हमारे लिये भी एक उत्तम उदहारण है।

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