निष्काम कर्मयोग के मार्ग पर चलने वाला वयक्ति ही अपनी समस्त इच्छाओं और आकांक्षाओं को परमात्मा को समर्पित कर देता है। जिससे उसे कर्मफल के प्रति उसकी कोई आसक्ति नहीं रहती। वह सदैव अपने कर्त्तव्यों एवं दायित्वों के प्रति तत्पर और सजग रहता है। वह अपने जीवन निर्वाह में संतोष की अनुभूति करता है। शरीर से कर्म और मन से चिंतन करते हुए भी वह सभी सांसारिक पदार्थों एवं व्यक्तियों के प्रति निरासक्त भाव ही रखता है।

निष्काम कर्मयोग क्या है

अर्जुन को संबोधित कर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—


योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गंत्यक्त्वा धनंजय।

सिद्धयासिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योगउच्यते॥


अर्थात — "हे अर्जुन! आसक्ति छोड़कर सिद्धि और असिद्धि के विषय में समबुद्धि रखकर, योग में स्थिर होकर कर्म कर। समत्व को ही योग कहते हैं।”  


भगवान कृष्ण ने अर्जुन को निष्काम कर्मयोग का उपदेश देते हुए कहा, "जो सुख-दुख, लाभ-हानि, जीत-हार, सफलता-असफलता, जीवन-मृत्यु, भूत और भविष्य की चिंता नहीं करता है। " वह अपने कर्तव्य में लीन रहता है, वही सच्चा निःस्वार्थ कर्मयोगी है।


सुख-दुःखे समे कृत्वा लाभ-अलाभौ जय-अजयौ।

ततः युद्धाय युज्यस्व न एवम् पापम् अवाप्स्यसि॥


अर्थात — "हे अर्जुन! सुख-दु:ख,  लाभ-हानि और जय-पराजय को समान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाओ;  इस प्रकार तुमको पाप नहीं होगा।। 


निष्काम कर्मयोग क्या है? 


निष्काम कर्मयोग इसे हम इसप्रकार समझ सकते है की स्वयं ईश्वर ने ब्रह्मांड के नियामक संचालक होने के नाते हमें ज्ञान और बुद्धि देकर हमें अपने कर्मों का स्वामी बनाया है। हमें अपना कर्म करने की पूरी आजादी है। हम चाहें तो अच्छे कर्मों का मार्ग अपनाकर आध्यात्मिक उन्नति की ओर बढ़ सकते हैं या कुकर्मों में लिप्त होकर अपने पतन का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। अच्छे और बुरे कर्मों के लिए केवल मनुष्य ही जिम्मेदार है। यदि हम मन की अपेक्षा आत्म-प्रेरणा के अनुसार अपनी गतिविधियों का संचालन करते हैं, तो हम कभी भी कुकर्मों की ओर नहीं बढ़ेंगे। अत: कर्म का उत्तरदायित्व स्वयं पर स्वीकार ना करने के स्थान पर ईश्वर को उत्तरदायी बनाना निष्काम कर्मयोग या अनासक्त कर्मयोग की गलत व्याख्या करना है।


निष्काम कर्मयोग या अनासक्त कर्मयोग शब्द ही अपने वास्तविक अर्थ को भी प्रकट करता है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है- अनासक्त और कर्मयोग। अनासक्ति का अर्थ है आसक्ति, मोह, प्रेम होना। अहंकार की उत्पत्ति आसक्ति से होती है। दूसरा शब्द है कर्मयोग। गीता इसे समझाती है, "योग: कर्मसु कौशलम" - योग क्रिया में कौशल है। एक कुशल व्यक्ति वह हो सकता है जिसे सही और गलत कार्यों के बीच अंतर की स्पष्ट समझ हो।



कुशल शब्द के अंतर्गत सत्यम, शिवम्, सुंदरम की आत्मा प्रवाहित होती है। अतः कार्य कुशलता में अशुभ कर्मों की कोई गुंजाइश नहीं होती। निष्काम कर्मयोग या अनासक्ति कर्मयोग का वास्तविक अर्थ यह है कि कोई भी कार्य कर्तापन के अभिमान को पीछे छोड़कर उसके परिणाम से अनासक्त रहकर पूर्ण कुशलता से किया जाना चाहिए। निष्काम कर्मयोग के दर्शन को हृदय में धारण करके और इस मार्ग पर चलकर साधक संसार में रहकर भी स्वर्ग-मुक्ति के उच्चतम स्तर के सुख को प्राप्त कर सकता है।


कर्म, अकर्म और विकर्म क्या है? 


निष्काम कर्मयोग को समझने के लिए हमे कर्म, अकर्म और विकर्म को जानना होगा। गीता के अनुसार कर्मों के त्याग को ही अकर्म कहते हैं। क्योकि स्वधर्म या नियत कर्म को करना साध्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक है। इसलिए नियत कर्मों का त्याग उचित नहीं कहाँ जा सकता है और समस्त कर्मों का त्याग तो संभव भी नहीं है। कर्म तो करना ही पड़ेगा। हम केवल कर्मफल का ही त्याग कर सकते हैं। परंतु कुछ कर्मो को निषिद्ध माना गया हैं। कर्मों का निषिद्ध या विहित होने का निर्धारण देश, काल, वर्ण और आयु आदि पर निर्भर करता है। निषिद्ध कर्म बिना आसक्ति के नहीं किए जा सकते और इसलिए वह बंधनकारक होते हैं इन्हें विकर्म कहते हैं। हत्या, झूठ बोलना, व्यभिचार आदि सभी विकर्म के उदाहरण हैं।


इस तरह गीता के अनुसार कर्मों का त्याग अर्थात् अकर्म की तुलना में कर्म करना श्रेयस्कर बताया गया है। जीवित रहते हुए कर्मों का त्याग असंभव होता है। इसलिए गीता में फल की आकांक्षा को त्याग कर नियत या विहित कर्म को करने का उपदेश दिया गया है। कर्म तो करना ही पड़ेगा लेकिन उसमें अहंता और कर्त्तापन का भाव नहीं होना चाहिए।


निष्काम कर्मयोग के अनुसार "स्थितप्रज्ञता" क्या है? 


हम अपने कर्मों में निष्काम कर्मयोग को कैसे सिद्ध कर सकते हैं? अनासक्त होकर किसी भी कार्य कैसे किया जा सकता है? क्योकि निष्काम कर्म व्यक्ति से दृढ़ मानसिक स्थिति की मांग करता है। हम अपनी बुद्धि को स्थिर रख कर ही निष्काम कर्म को कर सकते हैं। क्योकि सामान्य व्यक्ति की बुद्धि सदैव विभिन्न इच्छाओं के प्रति आकर्षित होती रहती है। उसकी इन्द्रियां अपने विषयों में भटकती रहती हैं। लेकिन इसके विपरीत जो स्थितप्रज्ञ है वह सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर आत्मसंतुष्ट रहता है।


दुखेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगत स्पृह:।

वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।


अर्थात — जो दुख में मन से उद्विग्न नहीं होता, सुख के लिए लगाव नहीं रखता और राग, भय एवं क्रोध से परे होता है, ऐसे व्यक्ति को मुनि जन ‘स्थितधी’ या ‘स्थितप्रज्ञ’ कहते हैं।

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