शनिदेव को ज्योतिष शास्त्र में एक क्रूर गृह की संज्ञा दी गई है, सभी मानव क्या यहाँ तक सभी देवता भी शनिदेव की वक्र दृष्टि से भयभीत रहते है लेकिन एक ऐसे ऋषि भी हुऐ है, जिनसे शनि जैसे शक्तिशाली ग्रह भी भयभीत रहते है उन ऋषि का नाम है पिप्पलाद जिन्होंने शनिदेव पर ही प्रहार कर दिया था। आज इस कथा के माध्यम से जानेगे की पिप्पलाद ऋषि ने क्यों किया था शनिदेव पर प्रहार?


पिप्पलाद ऋषि ने क्यों किया था शनिदेव पर प्रहार?

शनिदेव भगवान सूर्यनारायण और छाया के पुत्र हैं। जो इस सृष्टि में न्यायधीश के पद पर आसान है, लेकिन क्या आप जानते है की शनिदेव का एक पैर टूटा हुआ है। उनका यह पैर कैसे टूटा? इस विषय में हमारे पुराणों में एक कथा का उल्लेख मिलता है।

पिप्पलाद ऋषि और शनिदेव में संबंध

पिप्पलाद ऋषि और शनिदेव के बीच में क्या संबंध है, आदिकाल में वृत्तासुर नामक एक असुर हुआ था जो बहुत ही शक्तिशाली था, जिसका वध करने के लिए एक शक्तिशाली अस्त्र की आवश्यकता थी तब देवताओं के आग्रह पर महर्षि द‍धीचि ने अस्त्र बनाने के लिए अपनी हड्डियों दी थी तब देवराज इंद्र ने महर्षि द‍धीचि की हड्डियों से अपना वज्र बनाकर वृत्तासुर नामक असुर का वध किया था, क्योंकि महऋषि दधीचि को भगवान शिव से वरदान प्राप्त था जिससे उनकी हड्डियां तेज से युक्त और शक्तिशाली थी। 

महर्षि द‍धीचि की पत्नी को जब यह पता चला कि उनकी हड्डियों का उपयोग देवताओं के अस्त्र बनाने में हुआ है तो वह उस दुःख को सहन नहीं कर सकी और उन्होंने सती होने का निश्चय कर लिया। श्मशान में जहाँ महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार किया जा रहा था, वही पास में ही स्थित एक विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में उन्होंने अपने 3 वर्ष के बालक को रखकर स्वयम् चिता में बैठकर सती हो गयीं। इस प्रकार महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी का बलिदान हो गया

पिप्पलाद ऋषि ने क्यों किया था शनिदेव पर प्रहार? 

महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी सुवर्चा की मृत्यु के उपरांत उस पीपल के कोटर में रखा वह बालक भूख प्यास से तड़प तड़प कर चिल्लाने लगा। जब उस बालक को कोई वस्तु नहीं मिली तो वह उस कोटर में गिरे हुऐ पीपल के गोदों(फल) को खाकर बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के पत्तों और फलों को खाकर उस बालक का जीवन देव कृपा से येन केन प्रकारेण किसी प्रकार सुरक्षित रहा। एक दिन सयोंग से देवर्षि नारद वहाँ से गुजरे, तब उन्होंने पीपल के कोटर में उस बालक को देखकर उसका परिचय पूंछा-

नारद जी ने कह बालक तुम कौन हो?

उस बालक ने उत्तर दिया, यही तो मैं भी जानना चाहता की में कौन हूँ। 

नारद जी ने पुनः पूछा की तुम्हारे जनक कौन हैं?

बालक ने पुनः उत्तर दिया की यही तो मैं जानना चाहता हूँ, की मेरे जनक कौन है।

तब नारद जी ने ध्यान धरकर अपनी दिव्य दृष्टि से देखा। तब नारद जी ने आश्चर्यचकित हो बताया कि हे बालक! तुम तो महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो। तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी। नारद ने बताया कि तुम्हारे पिता दधीचि की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की आयु में ही हो गयी थी। तुम्हारे पिता की मृत्यु के शोक में तुम्हारी माता भी सती हो गई थी। 

तब बालक ने पूछा की मेरे माता पिता की अकाल मृत्यु का कारण क्या था?  

तब नारद जी ने कहाँ की तुम्हारे माता पिता पर शनिदेव की महादशा थी।

बालक में पुनः पूछा की मेरे ऊपर आयी इस विपत्ति का कारण क्या था?

नारद जी ने उसे बताया की शनिदेव की महादशा ही इस विपत्ति का कारण थी।

तब देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर जीने वाले बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित भी किया। नारद के जाने के बाद उस बालक पिप्पलाद ने नारद जी के बताए अनुसार ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। जब ब्रह्मा जी ने जब बालक पिप्पलाद से वर मांगने को कहा तो पिप्पलाद ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी को भी जला डालने की शक्ति माँगी। ब्रह्मा जी से इच्छित वर मिलने पर सर्वप्रथम पिप्पलाद ने शनिदेव का आह्वाहन कर उन्हें अपने सम्मुख प्रस्तुत किया और शनिदेव को सामने पाकर आँखे खोलकर भष्म करना शुरू कर दिया।

शनिदेव पिप्पलाद की दृष्टि पड़ने से सशरीर जलने लगे। इससे पुरे ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया। सूर्यपुत्र शनि की रक्षा करने में सारे देव विफल हो गए। भगवान सूर्य भी अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र को जलता हुआ देखकर ब्रह्मा जी से उसे बचाने हेतु अनुनय विनय करने लगे। तब अन्ततः ब्रह्मा जी स्वयम् पिप्पलाद के सम्मुख पधारे और शनिदेव को छोड़ने के लिए कह किन्तु पिप्पलाद इसके लिए तैयार नहीं हुए। तब ब्रह्मा जी ने उन्हें एक के बदले दो वर मांगने को कहाँ, इससे संतुष्ट होकर पिप्पलाद ने निम्नवत दो वरदान मांगे-

पहला - किसी भी बालक की जन्म कुंडली में 5 वर्ष की आयु तक शनि का कोई प्रभाव नहीं होगा। जिससे कोई भी बालक मेरे तरह कष्ट ना भोगे।

दूसरा - मुझे इस पीपल के वृक्ष ने शरण दी है। अतः जो कोई भी व्यक्ति सूर्योदय से पहले पीपल के वृक्ष पर जल को चढ़ाएगा उसपर शनि की महादशा का कोई असर नहीं होगा।  

तब ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह कर पिप्पलाद को यह दोनों वरदान दे दिये। इसके बाद पिप्पलाद ने शनिदेव को अपने ब्रह्मदण्ड से प्रहार करके उन्हें मुक्त कर दिया। ब्रह्मदण्ड के प्रहार से शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वे पहले के जैसे तेजी से चलने लायक नहीं रहे। अतः तभी से शनि "शनै:चरति य: शनैश्चर:" अर्थात जो धीरे चलता है वही शनैश्चर है, कहलाये और शनिदेव आग में जलने के कारण उनकी काया काली हो गई। सम्प्रति शनि की काली मूर्ति और पीपल वृक्ष की पूजा का यही धार्मिक हेतु है। आगे चलकर पिप्पलाद ने प्रश्न उपनिषद की रचना की,जो आज भी ज्ञान का वृहद भंडार है।

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