विश्वास और अंधविश्वास की पहचान क्या है

विश्वास और अंधविश्वास की पहचान क्या है?

 
विश्वास और अंधविश्वास क्या इन दोनों को हम तर्क के द्वारा परिभाषित कर सकते है। अगर हां तो उस तर्क का आधार क्या होगा। क्या दिये गये तर्क के प्रमाण भी किसी विश्वास पर आधारित है। अगर हां तो उन दिये गये तर्कों का आधार क्या है, विश्वास या अंधविश्वास, शायद इस बहस का कोई अंत नहीं है। 

क्योकि कही ना कही तर्कों का प्रमाण भी हमारे विश्वास और अंधविश्वास पर ही आधारित होता है। क्योकि जो तर्क दिया गया है यदि वह अपने प्रमाण के साथ सामंजस्य बिठा पाता है तो उसे हम स्वीकार कर लेते है। और जो तर्क अपने प्रमाण के साथ सामंजस्य नही बिठा पाता उसे हम अस्वीकार कर देते है। 

वास्तव मे ये दोनों एक दूसरे से जुड़े हुऐ है। इसलिए अब प्रश्न यह उठता है की सबसे पहले हमारा परिचय किससे होता है विश्वास से या अंधविश्वास से। हम अपना जीवन किसके सहारे प्रारंभ करते है। सबसे पहले हम विश्वास का हाथ थामते हैं या सबसे पहले हम अंधविश्वास का ही साथ लेते हैं। 

क्योकि जब हमारा जीवन प्रारम्भ होता है, तो हम जिन वस्तुओ के संपर्क मे आते है या उनका अनुभव करते है चाहे स्पर्श के द्वारा या दृष्टि के द्वारा या फिर मन के द्वारा हम उन्हें आत्मसात करते चले जाते हैं। क्या उन्हें उसी रूप में ग्रहण कर लेना हमारा विश्वास है या उसे भी हम अंधविश्वास कहेंगे। उसे तो हम निश्चित ही अंधविश्वास ही कहेंगे क्योंकि विश्वास की तो यह शैली नही होती उसे तो तर्क चाहिए और बिना तर्क की कसौटी पर उतरे उसे आत्मसात करना कठिन होता है। 

परंतु विश्वास को व्यक्त करने के लिए भी जिन तर्कों की आवश्यकता होती है उसके लिए बुद्धि का विकास तो समय की गति के साथ ही होता है क्योंकि प्रारंभ में तो बुद्धि का विकास इतना प्रभावी नहीं होता जो तर्को को समझ सके या फिर उनके मूल रूप को चुनौती देने के लिये तर्क दे सके।  

प्रकृति जिस भी रूप मे हमारे सामने है चाहे वो जल हो वायु हो पृथ्वी हो उसका जो भी रूप हो हम उसे उसके मूल रूप मे स्वीकार करते है। तब हम अंधविस्वास का ही सहारा लेते है और उसे पूर्ण सत्य मानकर आगे बढ़ जाते है। फिर जैसे-जैसे हमारा विकास होता है तब वही अंधविस्वास उसके प्रति विश्वास मे परिवर्तित हो जाता है
 

क्योकि वह अपने मूल स्वरूप को कभी भी परिवर्तित नही करती।जब बालक सर्वप्रथम अपनी माता का स्पर्श करता है उस वक़्त जो बालक और माता के बीच जो अनुभूति होती है उसका मूल तत्व केवल अंधविश्वास ही होता है क्योकि वो भी कभी नही बदलता जब बालक शिक्षा ग्रहण करता है

तब भी जो पाठ्यक्रम उसे दिया जाता उसे भी वो अंधविस्वास के साथ ही ग्रहण करता है। जो शब्द हमे सिखाए जाते है उनकी सरचना को भी हम अंधविस्वास के साथ ही ग्रहण करते है। फिर जब हमारी बुद्धि विकसित होती है तब हम उसी अंधविस्वास को विश्वास मे परिवर्तित कर आगे बढ़ जाते है।
        
क्या इससे यह सिद्ध नही होता की विश्वास की यात्रा तो हमारे जीवन मे बहुत बाद मे प्रारम्भ होती है। जब हमारी बुद्धि तर्को को समझने और उनका निर्माण करने मे सक्षम हो जाती है। बुद्धि की यही सक्षमता उसी अंधविस्वास द्वारा जनित वो ज्ञान होता है जो उन शब्दों की संरचना, नियमो का उसी रूप मे ग्रहण कर लेना होता है। 

अब क्या हम ये कह सकते है की जो सिद्ध है वो विश्वास है क्योकि उसमे परिवर्तन की सम्भावना है उसके लिये तर्को का निर्माण किया जा सकता है और जो पूर्ण सिद्ध है वो अंधविस्वास है क्योकि उसमे परिवर्तन की कोई सम्भावना नही होती और उसके लिये किसी भी तर्क का निर्माण नही किया जा सकता है।                                                                         
  
इसलिए ईश्वर की सत्ता भी अंधविश्वास  पर ही आधारित होती है। क्योकि ईश्वर कभी भी अपने मूल स्वरूप को नही बदलता। वो सभी के लिये एक समान है एक  जैसा है किसी भी काल या परिस्तिथि मे भी उसके स्वरूप मे कोई परिवर्तन नही आता। शायद इसीलिए ईश्वर के निकट कोई तर्क नही चलता। उन्हे उनके उसी मूल रूप मे स्वीकार करना पड़ता है।

अंत मे निष्कर्ष 

मनुष्य की क्षमताये सिमित होती है, इसलिए हम अपनी क्षमताओं के आधार पर ही कोई निर्णय करते है। निर्णय करने की क्षमता भी ज्ञान की मात्रा पर ही निर्धारित होती है, ज्ञान की मात्रा जितनी अधिक होगी निर्णय भी उतना ही सही होगा जो हमे विश्वास और अन्धविश्वास के चक्कर से मुक्त कराकर वास्तविकता से परिचय करा देता है          

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