भगवान 'जगन्नाथ जी' की रथयात्रा को पिछले 500 वर्षो से लगातार निकाले जाने की परंपरा रही है। इस यात्रा को हर साल अषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि को बड़े ही भव्य तरीके से भगवान जगन्नाथपुरी की रथ यात्रा को निकाला जाता है। इस रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा का रथ भी शामिल होता है।
भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का शुभारम्भ उनके रथ के सामने सोने के हत्थे वाली झाडू को लगाकर किया जाता है। उसके बाद वैदिक मंत्रोच्चार एवं भगवान के जयघोष के साथ इस भव्य रथयात्रा को शुरू किया जाता है। कई प्रकार के पारंपरिक वाद्ययंत्रों एवं घंटियों की आवाजो के बीच इन विशाल रथों को हजारो लोग मोटे-मोटे रस्सों की साहयता से खींचते हैं।
सबसे पहले बलभद्र जी का रथ, उसके बाद बहन सुभद्रा जी का रथ चलना शुरू होता है। तथा सबसे आखिर में भगवान जगन्नाथ जी के रथ को श्रद्धालु बड़े ही श्रद्धापूर्वक भाव से खींचना शुरू करते हैं।
भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा क्यों निकाली जाती है?
जगन्नाथ रथ यात्रा क्यों निकाली जाती है, इसके पीछे भक्तों और विद्वानों के अनुसार कई अलग-अलग मत हैं। एक आधुनिक मत के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि जब राजा रामचन्द्रदेव ने यवन महिला से विवाह के उपरांत इस्लाम धर्म को अपना लिया था। जिससे उनका मंदिर में प्रवेश करना निषेध हो गया था, तब उनके लिए ही इस रथ यात्रा को निकाली जाने लगा, क्योंकि राजा रामचन्द्रदेव भगवान जगन्नाथ जी के अनन्य भक्त थे।
भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा से सम्बंधित कथाये
इसके अतिरिक्त भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा से सम्बंधित कई पौराणिक कथाओ भी है, जिनके आधार पर कई लोगों की मान्यताए इससे जुडी हुई है। जिनका वर्णन किया जा रहा है।
पहली कथा
ऐसी पौराणिक मान्यता है कि एक बार भगवान श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा अपने मायके लौटती थी, तो उन्होंने अपने भाइयों श्री कृष्ण और बलराम से नगर भ्रमण की इच्छा को वयक्त किया, तब श्री कृष्ण, बलराम और सुभद्रा के साथ अपने रथ से नगर भ्रमण के लिए जाते हैं, तभी से इस रथ यात्रा का प्रारंभ माना गया है।
दूसरी कथा
दूसरी मान्यता के अनुसार यह माना जाता है कि गुंडीचा मंदिर में स्थित देवी श्रीकृष्ण की मौसी हैं, जो प्रत्येक वर्ष तीनों भाई-बहन को अपने घर पर आने का निमंत्रण देती है। इसीलिए हर वर्ष श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा तीनो एक साथ अपनी मौसी के घर 10 दिनो के लिए आते हैं।
तीसरी कथा
इस कथा के अनुसार श्रीकृष्ण के मामा कंस उन्हें मथुरा बुलाते हैं। जिसके लिए कंस सारथि के साथ रथ को गोकुल में भिजवाता है। तब श्री कृष्ण बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र के साथ रथ से मथुरा जाते है, तभी से इस रथ यात्रा की शुरुआत हुई मानी जाती है। हालांकि, कुछ लोग की यह भी मान्यता हैं, कि इस दिन श्री कृष्ण ने अपने मामा कंस का वध किया था जिसके बाद उन्होंने बड़े भाई बलराम के साथ प्रजा को दर्शन देने के लिए मथुरा में रथ से यात्रा की थी।
चौथी कथा
इस कथा के अनुसार श्री कृष्ण की रानियो ने माता रोहिणी से रासलीला को सुनने की इच्छा वयक्त की थी। तब माता को यह लगा कि कृष्ण की गोपीयों के साथ रासलीला के वर्णन को सुभद्रा को नहीं सुनना चाहिए, इसलिए वे सुभद्रा को कृष्ण और बलराम के साथ रथ यात्रा पर भेज देती हैं। उसी समय वहां नारदजी आ जाते हैं और उन तीनों को एक साथ देखकर बहुत प्रसन्न होते हैं। तब नारद जी भगवान से यह प्रार्थना करते है कि उन्हें हर साल तीनों के दर्शन ऐसे ही होते रहे। तभी से ही तीनों के दर्शन एक साथ ऐसे ही होते हैं।
जगन्नाथ रथ यात्रा की तैयारी
रथ यात्रा के समय महाप्रभु को 108 स्वर्ण कलशों के जल से स्नान कराया जाता है। श्री जगन्नाथ जी को 35 स्वर्ण कलशो के शीतल जल से, उनके बड़े भाई बलभद्रजी को 33 स्वर्ण कलशो के जल से, तथा 22 स्वर्ण कलशो के जल से बहन सुभद्राजी को स्नान कराया जाता है उसके बाद 18 स्वर्ण कलशो के शीतल जल से सुदर्शनजी को स्नान कराया जाता है।
शीतल जल से स्नान करने के कारण महाप्रभु बीमार हो जाते हैं। तब श्रीमंदिर के बीमार कक्ष वह एकांतवास करते हैं। जहा पर उनका आयुर्वेदसम्मत पूरा उपचार किया जाता है। उस समय पुरी जगन्नाथ मंदिर के कपाट को दर्शनो के लिए बंद कर दिया जाता है। 14 दिन की अवधि पूर्ण होने पर भगवान स्वस्थ होकर 15वें दिन अपने रथ पर सवार होकर सभी भक्तों को दर्शन देने बहार आते है।
भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा के बारे में स्कंद पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में भी वर्णन किया गया है। इसलिए इस रथ यात्रा का हिंदू धर्म में इसका विशेष महत्व है। हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार, जो कोई भी वयक्ति/श्रद्धालु इस रथयात्रा में शामिल होकर इन भव्य रथो को अपने हाथो से खींचता है उसे सौ यज्ञो के बराबर पुण्य प्राप्त होता है।
कैसे निकलती है जगन्नाथ रथ यात्रा
जगन्नाथ रथ यात्रा की शुरुआत बलभद्र जी से होती है। सबसे पहले उनका रथ 'तालध्वज' मुख्य मंदिर से निकलता है। उसके बाद उनकी बहन सुभद्रा के 'देवदलन' रथ की यात्रा शुरू होती है। तब सबसे अंत में सभी भक्त भगवान श्री जगन्नाथ जी के रथ ‘गरुड़ध्वज/कपिध्वज/नंदी घोष’ को बड़े-बड़े रस्सों की सहायता से खींचना शुरू करते हैं।
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रथ यात्रा पूरी होने पर भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ मुख्य मंदिर से ढाई किमी दूर अपनी मौसी के घर गुंडिचा मंदिर जाते है। यहां पर सात दिनो तक रुकने के बाद महाप्रभु आठवें दिन फिर अपने धाम मुख्य मंदिर पहुंचते है। इस तरह कुल नौ दिनो का उत्सव पुरी शहर में संपन्न होता है।
जगन्नाथ रथ यात्रा के रोचक तथ्य
- इस रथ यात्रा में शामिल तीनों रथ लकड़ी के बने होते हैं, जिन्हें श्रद्धालु भक्तिभाव से खींचकर चलते हैं। भगवान जगन्नाथ के रथ में 16 पहिये लगे होते हैं, बड़े भाई बलभद्र के रथ में 14 पहियों को लगाया जाता है तथा बहन सुभद्रा के रथ में 12 पहियों को लगाया जाता हैं।
- भगवान जगन्नाथ जी की रथ यात्रा के दौरान पूरी के राजा द्वारा सोने की झाड़ू से सड़क की सफाई की जाती है।
- भगवान जगन्नाथ का रथ - इस रथ के तीन नाम है जो इस प्रकार हैं - गरुड़ध्वज, कपिध्वज और नंदीघोष। इस रथ में 16 पहियों को लगाया जाता है और यह रथ 13 मीटर ऊंचा होता है।
- बलभद्र का रथ- इस रथ का नाम तालध्वज है। इस रथ पर महादेवजी का प्रतीक लगा होता है। इसके रक्षक वासुदेव और सारथी मातलि हैं। इस रथ पर लगे ध्वज को उनानी कहते हैं।
- सुभद्रा का रथ- इस रथ का नाम देवदलन है। इस रथ पर देवी दुर्गा का प्रतीक लगा होता है। इसकी रक्षक जयदुर्गा और सारथी अर्जुन हैं। इस रथ पर लगे ध्वज को नदंबिक कहते है।
- भगवान जगन्नाथ जी की रथ यात्रा के दौरान बारिश जरूर होती है, जो भी एक आश्चर्य है।
752 चूल्हों पर बनता है जगन्नाथ का भोजन
जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ जी के लिए 752 चूल्हों पर भोजन बनाया जाता है। जिस कारण से इसे दुनिया की सबसे बड़ी रसोई होने का दर्जा प्राप्त है। रथयात्रा के दौरान नौ दिनो में जगन्नाथ मंदिर के चूल्हे नहीं जलते हैं। गुंडिचा मंदिर जहा महाप्रभु नौ दिनों तक वास करते है वहा भी 752 चूल्हों की ही रसोई है, जिसे जगन्नाथ मंदिर की रसोई के समान ही माना जाता है। इस रथ यात्रा उत्सव के दौरान भगवान जगन्नाथ जी के लिए भोग यहीं बनता है।
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