कन्यादान क्या है और हिन्दू धर्म में विवाह रीती रिवाजो में कन्यादान की पवित्र रस्म को क्यों निभाया जाता है। आजकल कुछ लोग किसी चीज को बिना जाने और बिना समझे ही उस पर प्रश्न उठाने लगते है। विवाह मात्र कोई संस्कार नहीं है यह एक ऐसा धार्मिक कर्तव्य है जिसके द्वारा दो वयक्ति या दो परिवार या दो गोत्रो का मिलन होता है और वे अपने सांसारिक कर्तव्य को पूरा करते है। 


कन्यादान क्या है?

हिन्दू विवाह में जो भी संस्कार निभाये जाते है उन सबका का एक धार्मिक महत्व है जो हमारे समाज और संस्कृति के प्रति हमारे दायित्व को दर्शाता है। इन सभी संस्कारों को हमारे ऋषि मुनियों और पूर्वजो ने संजो कर रखा था और उन्हें अपनी धरोहर के रूप में हमे सौपा था। अब इन संस्कारो को पोषित करना हमारा कर्तव्य है।


कन्यादान क्या है? 

हम अक्सर हिन्दू विवाह में कन्यादान की रीती को अवश्य देखते है जहाँ वधु का पिता, माता या बड़ा भाई कन्यादान की रीती को निभाता हुआ दिखाई देता है। तो क्या इस रीती में हम कन्या को कोई दान की वस्तु समझते है जिसका दान किया जाता है। वास्तव में ऐसा नहीं है तो चलिये कन्यादान को हम पहले धर्म के परिद्र्श्य से समझते है।


हिन्दू धर्म के अनुसार किसी भी वयक्ति के जीवन में तीन महिलाओं का प्रमुख स्थान होता है माता, पत्नी और पुत्री और इन्ही के प्रति वह अपने तीन मूल कर्तव्यों को निभाता है। पहला माता जिसे प्रथम गुरु माना गया है जो अपने संस्कारों द्वारा हमारा पोषण करती है, इसलिए माता को सम्मान देकर उसकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करके अपने कर्तव्य को निभाते है, दूसरा कर्तव्य है पत्नी जिसे आधा अंग माना गया है जो पुरुष का आत्मविश्वास होती है, जिसकी रक्षा करके वह उसके गौरव की रक्षा करता है। 


तीसरा कर्तव्य होता है पुत्री जो पुरुष का स्वाभिमान और उसके कुल की प्रतिष्ठा होती है। किसी कुल की प्रतिष्ठा या स्वाभिमान कोई वस्तु नहीं होती जिसका दान किया जाये, यह तो आदर के साथ किसी को सौंपा जाता है। कन्यादान के द्वारा वह अपने इन्ही धार्मिक कर्तव्यों को पूरा करता है। कन्यादान के रूप में वह एक अंश माता एक अंश पत्नी का और एक अंश स्वयं का देकर किसी के जीवन को पूर्णता प्रदान करता है।


कन्यादान का पुराणों में उल्लेख 


पौराणिक परमाणिकताओ के अनुसार सर्वप्रथम दक्ष प्रजापति ने अपनी 27 नक्षत्र कन्याओं का विवाह चंद्र देव से करके कन्यादान की रीती का प्रारम्भ किया था और चंद्र देव द्वारा उन सभी कन्याओं का पाणिग्रहण किया गया था। ताकि सृष्टि का संचालन आगे बढ़े सके और साथ ही संस्कृति का विकास भी हो। दक्ष प्रजापति की एक पुत्री देवी सती भी थीं जिनका विवाह भगवान शिव से हुआ था।


महऋषि वाल्मीकि ने भी बड़े ही सुंदर तरीके से कन्यादान का उल्लेख रामायण में किया है जहाँ राजा जनक माता सीता का हाथ भगवान श्री राम को सौपते हुऐ कहते है -


इयं सीता मम सुता सहधर्मचरी तव। 

प्रतीच्छ चैनां भद्रं ते पाणिं गृह्णीष्व पाणिना।।


हिंदी अर्थ:- "यह मेरी पुत्री सीता जो आपके सही कर्तव्य को निभाने में आपकी भगीदारिणी होगी। इसलिए अपनी समृद्धि और सहधर्मिणी के रूप इसे स्वीकार करें और इसका हाथ अपने हाथ में लें।"


श्रीरामचरित मानस में भी गोस्वामी जी ने इसका बड़े ही भावपूर्ण तरीके से इसका वर्णन किया है, जब राजा जनक ने देवी सीता का विवाह किया तो बहुत भावुक होकर उन्होंने जो कहा, वह कन्यादान के धार्मिक अर्थ को समझने के लिए पर्याप्त  है। श्रीरामचरित मानस में तुलसीदास इस पूरे प्रसंग को बड़े ही सजीव तरीके से लिखते हैं।


लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।

नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुं दिसि चली॥

बर कुअंरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।

भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनंद भरैं॥

हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।

तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥  

  

समुद्र मंथन की कथा से भी कन्यादान का एक प्रसंग जुड़ा है एक पौराणिक घटना समुद्र मंथन में समुद्र से 14 रत्न प्राप्त हुए थे, जिनमें से आठवां रत्न स्वयं माँ लक्ष्मी थीं। तब समुद्र देव ने कौस्तुभ मणि के साथ माता लक्ष्मी का कन्यादान भगवान विष्णुजी को किया था तब लक्ष्मी-नारायण का दोबारा विवाह हुआ।


कन्यादान करने का तरीका 


हिन्दू धर्म विवाह में जब पिता कन्यादान करता है अर्थात पिता जब अपनी पुत्री का हाथ वर के हाथ में सौंपता है। तो उस वक्त वह वर से एक मार्मिक प्राथना करता है जैसे उसकी पुत्री को सम्मान और प्रेम उसके मायके में मिला है वैसा ही सम्मान उसे उसके ससुराल में मिले और इसकी जिम्मेदारी वर की होती है। इसके बाद से कन्‍या की सारी जिम्‍मेदारियां वर को ही निभानी होती हैं। यह एक अति भावुक संस्‍कार है, जहां एक बेटी अपने रूप में अपने पिता के किये हुए त्‍याग को महसूस करती है।



कन्यादान की रस्म को हर राज्य में अलग-अलग तरह से निभाया जाता है। दक्षिण भारत में कन्या अपने पिता की हथेली पर अपना हाथ रखती है और वर अपने ससुर की हथेली के नीचे अपना हाथ रखता है। फिर इसके ऊपर से जल को डाला जाता है। जहाँ पुत्री की हथेली से होता हुआ जल पिता की हथेली पर जाता है और इसके बाद वर की हथेली पर।


उतर भारत में कई स्‍थानों पर कन्यादान की रस्म के समय वधू की हथेली को एक कलश के ऊपर रखा जाता है। फिर वर वधू की हथेली पर अपना हाथ रखता है। फिर उस पर पुष्‍प, गंगाजल और पान के पत्ते रखकर मंत्रोच्‍चार किए जाते हैं। इसके बाद पवित्र वस्‍त्र से वर-वधू का गठबंधन किया जाता है। इसके बाद सात फेरों की रस्‍में निभाई जाती है।

 

कन्यादान की रस्म के समय वर-वधू के परिवार वालों के अतिरिक्त पंडित और सभी रिश्तेदार भी मौजूद होते हैं। यह रस्म वहाँ उपस्थित सभी लोगों को भावुक कर देने वाली होती है। शास्त्रों में कन्यादान को महादान की संज्ञा दी गई हैं जो भी व्यक्ति कन्यादान करता है शास्त्रों के अनुसार उसका पूरा जीवन सफल हो जाता है।


अंत में 


हिन्दू धर्म संसार का सबसे प्रचीन धर्म है जिसे हमारे पूर्वजो ने पोषित किया था और उसे अपनी विरासत के रूप में हमे सौपा था। लकिन आज की पीढ़ी इन मान्यताओं को ज्ञान के आभाव में इन्हे अस्वीकार करने लगी है। कन्यादान के धार्मिक अर्थ को समझे बिना हम इस पवित्र रस्म पर सवाल उठाने लगे है। हमने अपने लेख में कन्यादान के महत्व को समझाने का प्रयत्न किया है। अब ये हम पर है की हम इन धार्मिक मान्यताओं को सम्भाल करे रखे और इसे अपनी अगली पीढ़ी को सौपे या इसे अपने सामने ही नष्ट होने दे।     

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