इस सम्पूर्ण सृष्टि में भगवान शिव के कई रूप विधमान हैं, जिनमें से एक रूप नटराज का हैं। जिसके बारे में यह कहा जाता है कि यह शिव की आनंदमयी अवस्था है। भगवान शिव के इस नटराज रूप का अपना एक विशेष धार्मिक और आध्यात्मिक रहस्य है। 

शिव का नटराज स्वरूप क्या है

सनातन धर्म के अनुसार त्रिदेवों में भगवान शिव को सबसे महत्वपूर्ण और शक्तिशाली माना गया है भगवान शिव के विभिन्न रूप और उनकी लीलाएं हमेशा से ही कौतूहल का विषय रही हैं। ऐसी मान्यता है कि शिव के नटराज रूप की अवधारणा उनके आनंदमय तांडव नृत्य से जुड़ी हुई है। शिव के इस नटराज रूप का अर्थ जितना व्यापक है उतना ही ग्रहण करने वाला है। दूसरे शब्दों में कहे तो शिव का नटराज स्वरूप निर्माण और विनाश दोनों प्रक्रियाओँ को दर्शाता है।  


शिव का नटराज स्वरूप क्या है? 


सभी देवताओं के आराध्य, महादेव तीनों लोकों के अधिष्ठाता देव हैं। सृष्टि के आरम्भ में इस ब्रह्मांड के संहारक और पालनकर्ता भगवान शिव एक ज्योति स्तंभ के रूप में प्रकट हुए। वैसे तो शिव के कई रूप हैं जिनमें उनका रुद्र और नटराज रूप बहुत प्रसिद्ध है। शिव महापुराण में भोलेनाथ के सभी रूपों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। भगवान शिव ने इस ब्रह्मांड के कल्याण के लिए असंख्य रूप धारण किए और उनका हर रूप भक्तों के मन को मोह लेने वाला है।


नटराज शिव नृत्य-विज्ञान के जनक है। शास्त्रों में ऐसा वर्णन मिलता है कि प्रदोष काल के समय भगवान शिव कैलाश पर्वत पर उपस्थित रजत भवन में डमरू बजाते हुए बड़े आनंद से नृत्य करते हैं। उस समय सभी देवता भगवान शंकर की पूजा और स्तुति करने के लिए कैलाश पर्वत पर आते हैं। माँ सरस्वती वीणा बजाती है, इंद्र वंशी धारण करते है, ब्रह्मा जी ताल देते है, महालक्ष्मी गीत गाती है और भगवान विष्णु मृदंग बजाकर भगवान शिव की आराधना करते हैं। प्रदोष काल में सभी यक्ष, गंधर्व, नाग, किन्नर, सिद्ध, ग्रह, नक्षत्र और अप्सराएं भी नटराज भगवान शिव की आराधना में लीन हो जाते हैं।


पुराणों में भगवान शिव के 'नटराज' रूप का वर्णन

 

भगवान शिव के तांडव के दो रूप माने गये हैं। पहला रूप उनके क्रोध का है, जो विनाशकारी प्रचंड तांडव का है और दूसरा रूप है आनंद दायक तांडव का। लेकिन ज्यादातर सभी लोग तांडव शब्द को भगवान शिव के क्रोध से जोड़कर देखते हैं। शिव के रौद्र तांडव को रुद्र कहा जाता है और शिव के आनंद तांडव को नटराज कहाँ जाता हैं। प्राचीन आचार्यों और ऋषियों के मतानुसार भगवान शिव के हर्षित तांडव से ही इस सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और उनके भयंकर तांडव नृत्य से ही यह सृष्टि विलीन हो जायेगी। महादेव का यह नटराज रूप भी उनके दूसरे रूपों की भाती ही आकर्षक है और इसकी कई व्याख्याएं हैं।


नटराज शिव की चार भुजाएँ हैं, जो एक अग्नि चक्रों से घिरी हुई हैं। वह अपने एक पैर से एक बौने राक्षस को नीचे दबाये हुऐ है और उनका दूसरा पैर नृत्य मुद्रा में ऊपर की ओर उठा हुआ है। उन्होंने अपने दाहिने हाथ में एक डमरू पकड़ा हुआ है। डमरू की ध्वनि सृजन का प्रतीक है। जो शिव की रचनात्मक शक्ति को इंगित करती है। उन्होंने अपने बाये हाथ में अग्नि को धारण किया हुआ है। यहाँ यह अग्नि विनाश का प्रतीक है। इसका अर्थ यह है कि शिव ही एक हाथ से रचना करते हैं और दूसरे हाथ में यह रचना विलीन हो जाती हैं। नटराज शिव का दूसरा दाहिना हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है जो हमें बुराई से बचाता है।


नटराज शिव का उठा हुआ पैर मोक्ष का प्रतीक है। यहाँ उनका दूसरा बायां हाथ उनके उठे हुए पैर की ओर इशारा करता है। इसके द्वारा शिव हमे मोक्ष का मार्ग सुझाते हैं। अर्थार्त शिव के चरणों में ही मोक्ष है। नटराज शिव के पैरों के नीचे कुचला हुआ बौना दानव अज्ञानता का प्रतीक है जिसे शिव नष्ट कर देते है। शिव अज्ञान का विनाश करते हैं। नटराज मुद्रा में चारों ओर उठती हुई अग्नि की लपटें इस ब्रह्मांड का प्रतीक हैं। नटराज के शरीर पर लहराते हुऐ सांप कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक हैं। नटराज की यह सम्पूर्ण आकृति ओंकार जैसी दिखती है, जिसका यह अर्थ है की ॐ शिव में ही निहित है।


शिव के नटराज स्वरूप से जुडी कथायें 


पहली कथा 


स्कंद पुराण में भगवान नटराजन से संबंधित एक कथा है, जिसके अनुसार वानप्रस्थ में रहने वाले तपस्वी साधु मोह और माया के वशीभूत होकर अपने तप के कारण अभिमानी हो गए। वे लोग साधारण मनुष्यों को तुच्छ प्राणी समझने लगे। उन सब का यह व्यवहार देखकर कैलाशपति भगवान शिव ने उन साधुओं के अहंकार को तोड़ने का निश्चय किया। तब भगवान शिव ने एक साधारण भिक्षुक का रूप धारण किया और उस जंगल में विचरण करने लगे, जब वे उन अभिमानी साधुओं के आश्रम से गुजरे, उस दौरान साधुओं के बीच जीवों की रचना और सर्वश्रेष्ठ जीवों के विषय पर चर्चा चल रही थी। उन साधुओं में स्वयं सर्वश्रेष्ठ होने की मानसिकता विकसित हो चुकी थी, इसलिए उन्होंने भगवान की पूजा न करने का निर्णय लिया। वे सब यह मानने लगे कि यह सारा संसार केवल ऋषियों पर ही टिका हुआ है।



उनकी यह बातें सुनकर भिक्षुक रूप धारणकारी शिव ने अपने तर्क से उन सब ऋषियों की बातों को गलत साबित कर दिया। शिव को ऐसा करते देख अहंकार से भरे साधुओं ने शिव को दंड देने की योजना बनाई। तब उन्होंने अपनी मंत्र शक्ति से एक राक्षस और कई सांपो को उत्पन्न किया। यह देखकर महश्वेर शिव ने एक अनोखा रूप धारण कर अपनी एक नृत्य मुद्रा से राक्षस और उन सांपों को मार डाला। तभी से नटराज की मूर्ति में भगवान शिव को चारों ओर नागों से लिपटे हुए दिखाया जाता है। इस अनोखे दृश्य को देखकर सभी साधु भयभीत हो गये और उनका अहंकार पल भर में टूट गया। सभी साधुओ ने शिव से क्षमा मांगी और उनके नटराज स्वरूप की आराधना की। इस प्रकार तभी से भगवान शिव के नटराजन स्वरूप को सृजन और विनाश के प्रतीक के रूप में जाना जाता है।


दूसरी कथा 


शिवमहापुराण के अनुसार माता पार्वती की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उनसे वरदान मांगने को कहा। पार्वती जी ने कहा - 'देवताओं के कार्य को सिद्ध करने के लिए आपको मेरा पाणिग्रहण स्वीकार करना चाहिए। इसलिए आप मेरे पिता के पास जाकर उनसे मेरा हाथ मांगिए।'


पार्वती के इस तरह कहने पर भगवान शिव ने कहा- 'ऐसा ही होगा।'


इसके बाद एक दिन हिमालयराज की पत्नी मेना अपनी बेटी पार्वती के साथ महल के प्रांगण में बैठी हुई थीं और राजा हिमालय गंगा जी में स्नान करने गए हुऐ थे, उस समय भगवान शिव बाएं हाथ में एक सींग और दाहिने हाथ में डमरू लेकर मनोहर का गीत गाते हुए नृत्य करने लगे। उन्हें नृत्य करता देख नगर के सभी लोग वहां जमा हो गए।उनके नृत्य से प्रसन्न होकर मेना देवी ने उन्हें रत्नों से भरा एक स्वर्ण पात्र दिया, लेकिन नर्तक शिव ने इसे लेने से इनकार कर दिया और भिक्षा में पार्वती को मांगने लगे।


यह सुनकर महारानी मेना चकित रह गई और क्रोध में भगवान शिव को महल छोड़ने के लिए कहने लगी। उसी समय पर्वतराज हिमालय भी वहां आ गये और यह जानकर की वह नर्तक पार्वती को भिक्षा में मांग रहा है उन्होंने भी शिव को महल से बाहर जाने के लिए कहा। तब नट रूप धरे शिव ने पर्वतराज हिमालय को अपना प्रभाव दिखाया। हिमालयराज को उस नटराज में कभी विष्णु, कभी ब्रह्मा और कभी सूर्य के रूप में दर्शन हुऐ; उसके बाद नटराज रूपी शिव उनके सामने तेजस्वी रुद्र के रूप में प्रकट हुए। यह देखकर पर्वतराज हिमालय और मैना रानी चकित रह गए। उसके पुनः नट रूपी शिव ने भिक्षा में पार्वती को माँगा और अंतर्ध्यान हो गये। तब राजा हिमालय और मेना को यह एहसास हुआ कि यह सब 'सर्वव्यापी शिव की ही माया है।' इस प्रकार माता पार्वती से विवाह के लिए, भगवान शिव के नर्तक नटराज का अवतार लिया था। 


नटराज स्वरूप का आध्यत्मिक वर्णन 


नटराज शिव की चार भुजाएँ हैं, जो चारों और एक अग्नि चक्रों से घिरी हुई हैं। नटराज अपने एक पैर से एक बौने राक्षस को नीचे दबाये हुऐ है, जिसे काल (समय/मृत्यु) का प्रतीक माना गया है और शिव जो काल से परे महाकाल है जो समय से परे है, उनका दूसरा पैर नृत्य मुद्रा में ऊपर की ओर उठा हुआ है। नटराज शिव ने अपने दाहिने हाथ में एक डमरू को पकड़ा हुआ है, जिसकी ध्वनि सृजन का प्रतीक है और उनके बाये हाथ में अग्नि है, जो विनाश का प्रतीक है। यहाँ नटराज इस रूप में एक हाथ से रचना करते हैं और दूसरे हाथ से उसका विनाश करते हैं। नटराज शिव का दूसरा दाहिना हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है जो हमें बुराई से बचाता है।


नटराज शिव का उठा हुआ पैर मोक्ष की और इंगित करता है। यहाँ उनका दूसरा बायां हाथ मोक्ष का मार्ग दिखता हैं। शिव के चरणों में ही मोक्ष है। नटराज के चारों ओर अग्नि की लपटें इस विशाल ब्रह्मांड का प्रतीक हैं शरीर पर लहराते हुऐ सांप कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक हैं। नटराज शिव की यह आकृति ओंकार जैसी है, जिसका यह अर्थ है की ॐ शिव में ही निहित है।

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