lord rama pita aur putra

श्री राम एक आदर्श पुत्र 


भगवान राम के चरित्र का वर्णन करते हुऐ आज हम 'पिता और पुत्र की मर्यादा' का एक सामन्य मनुष्य की दृस्टि से अवलोकन करने का एक प्रयास मात्र है।भगवान राम ने इस मर्यादा का जो उदहारण उन्होंने इस समाज के सामने प्रस्तुत किया है अगर हम थोड़ा सा भी उसका अनुसरण करने का प्रयत्न करे तो शायद हम पिता और पुत्र के वास्तविक सम्बन्ध को निश्चित ही सार्थक कर पायगे।  

पिता और पुत्र चरित्र का वर्णन 


वो पुत्र जो पिता के अपने मुख से कहे बिना भी उनके ह्रदय की आंतरिक मनोस्थिति को समझ कर तुरंत निर्णय ले लेता है और पिता की बात की मर्यादा को समझते हुऐ बिना किसी अन्तर्द्वन्द्व के इस प्रकार उस प्राप्त होने वाले राज्य को तुरंत त्याग देते है जैसा वो कभी उनका था ही नही। मन की ऐसी स्थिरता जिसे अचानक परिवर्तित होने वाली विषम परिस्थिति भी विचलित नही कर सकती। 

जिसने सम्पूर्ण जन समाज को भी विचलित और पीड़ित कर दिया परंतु राम के ह्रदय को तनिक भी विचलित नही कर पाई। इसका मुख़्यत यही कारण है की राम अपनी समस्त आकांक्षाओं को स्वयं मे ही समेटकर सागर की भाती इतने विशाल और गहरे हो चुके थे जिसमे उफनती नदियों के सामान विचलित करने वाली तरंगे भी उस सागर मे मिलकर शांत हो जाती है। 

यही कारण था की राम कभी भी स्वयं के लिऐ नही थे वो सभी के लिये थे। इसीलिए स्वयं की मर्यादा के दुर्ग मे सुरक्षित राम दुसरो की मर्यादा को आत्मसात करते हुऐ तुरंत सही निर्णय लेने मे सक्षम थे और उन मर्यादाओ की रक्षा उसी प्रकार करते है जैसे वो स्वयं की रक्षा कर रहे हो।

चिटकूट मे भी जब सभी उन्हे पुनः अयोध्या वापस चलने को कहते है तो वो इसे अस्वीकार कर देते है। यधपि इस प्रसंग मे जब कैकेयी भी राम से अपने वचनो को वापस लेने की बात कहती है तो भी राम इसे अस्वीकार कर देते है। राम कहते है हे माता आपका वचन पिता से सम्बंधित था मुझसे नहीं, मेरा सम्बन्ध तो पिता के वचन से है आपसे नही। 

धर्म की इस गूढ़ व्याख्या को वो ही परिभाषित कर सकता है जिसने मर्यादाओं को पूर्ण सिद्ध कर स्वयं उसका प्रतीक बन गया हो। पिता और पुत्र के इस संबंध मे दो वचनो का जिक्र है जिसमे एक को वनवास और दूसरे को राज्य दिया गया। तो क्या राम का भरत से राज्य लेना पिता के वचन का उलंघन था पूर्ण रूप से नही क्योकि वो राज्य श्री राम ने भरत से उनके आग्रह पर लिया था पिता से नही। 

उस राज्य पर भरत का पूर्ण अधिकार था और वो उसे किसी भी को प्रदान करने के लिये सवतंत्र थे। श्री राम का जीवन चरित्र इन्ही मर्यादाओ का वो संगम है जिसमे आप जितनी बार भी स्नान करले आपके मन की तृप्ति नही हो सकती और पुनः उसी संगम मे स्नान करने की इच्छा जाग्रत हो जाती है।  


अंत मे निष्कर्ष 

राम के जीवन के यही वो आदर्श है जो राम को मानव आचरण की उस परम पदवी पर आसित कर देते है जहा वो साधरण मनुष्य से ईश्वरीय तत्व की और अग्रसर हो जाता है।ऊपर दिये गये Web Links मे राम के इन्ही गुणों का वर्णन किया गया है, जिस पर आप अपने विचार व्यक्त कर सकते है।

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