श्री राम: राजधर्म की पूर्ण व्याख्या
राम की मर्यादा प्रेम का वो आधार है जिससे उत्पन विश्वास राम को उनके आचरण से डिगने नहीं देता। इसीलिए राम के व्यक्तित्व के आधार का केंद्र बिंदु निश्चित ही सीता है। प्रेम के भी दो रूप होते है साकार और निराकार, निराकार प्रेम कर्तव्य भाव से मुक्त होता है, परन्तु साकार प्रेम कर्तव्य भाव से बंधा होता है, क्योकि इसकी अपनी सीमाओं होती है।
सीमाओं के इसी दायरे मे वह अपने आचरण द्वारा प्रेम की दिव्यता को इस प्रकार प्रकाशित कर देता है की वो समाज के लिए एक दृष्टांत बन जाता है। और यही कारण की निराकार प्रेम कभी भी दृष्टांत नहीं बन पाता। साकार प्रेम के इसी भाव को आत्मसात करते राम अपने आचरण द्वारा सभी को इसप्रकार सम्मोहित करते है जिसका स्मरण मात्र ही प्रेम की सार्थकता को स्थापित करने के लिए पर्याप्त होता है।
पुष्प वाटिका मे सीता जी से प्रथम मिलन पर ही राम मन ही मन उन्हे अपना सम्पूर्ण प्रेम समर्पित कर देते है, जो विवाह के उपरांत प्रेम की पूर्ण आहुति के रूप मे उन्हे एक पत्नी व्रत लेने की प्रेरणा देता है। क्योकि प्रेम बटता नहीं बढ़ता है।
राम कथा जीवन की उन सामान्य घटनाओ का एक ऐसा क्रमबद्ध विवरण है जो मानव मूल्यों की नीव को एक आधार प्रदान करती है। समय-समय पर विद्वानों ने इस कथा को मानव मूल्यों की कसौटी परखा है। सभी ने राम को अपनी बौद्धिक क्षमताओं के अनुसार परिभाषित किया है। एक नारी की सामाजिक भूमिका, उसके अधिकार और सम्मान के प्रति राम सजग और तार्किक थे।
वाल्मीकि रामायण (भाग 114) मे राम का महिलाओ के लिए यह सम्बोधन " महिलाओं का सम्मान उस सम्मान से होता है जो उन्हें राष्ट्र व अपने व्यवहार के कारण मिलता है। महिलाओं पर किसी भी प्रकार का प्रतिबंध - चाहे घर की मर्यादा के नाम पर, परिधान की बाध्यता के नाम पर, रक्षा के नाम पर उसकी सीमाओं का निर्धारण करना - यह सब समाज की नासमझी है।" यह कथन राम का उनके एक स्त्री के प्रति दृष्टिकोण को दर्शाता है।
परन्तु अकस्मात ऐसा क्या होता है की राम अपने इन्ही आदर्शो के विपरीत व्यवहार करते दिखाई देते है। क्या यह परिवर्तन राम के उज्वल चरित्र को धूमिल करता हुआ नज़र नहीं आता। क्योकि वाल्मीकि रामायण मे अध्याय 114 में अंतिम छंद को छोड़कर बाकी कविताएँ राम कथा की वास्तविक कहानी को आगे ले जाती हुई प्रतीत नहीं होती हैं। वे मिलावटी लगती हैं।
छंद 13 और 14 में, राम ने इस तरह की गंभीर चुनौतियों पर जीत हासिल करने के बाद सीता को वापस पाने की अपनी संतुष्टि व्यक्त की। और फिर श्लोक 15 में, आश्चर्यजनक परिवर्तन होता है जहां राम यह बताते है कि उन्होने सीता को वापस पाने के लिए यह सब नहीं किया। स्पष्ट रूप से यही पर इस कथा मे मिलावट की गई है।
इतना ही नहीं यह मिलावट अचानक कहानी को एक नई दिशा देती है, जो रामायण के बाकी हिस्सों से संबंधित ही नहीं है जहां राम सीता के वियोग में रो भी रहे है और सीता को अग्नि-परीक्षा के लिए मजबूर भी कर रहे है। संपूर्ण रामायण में, राम एक सत्य-साधक रहे हैं, इसलिए इस कथा मे यह आकस्मिक मोड़ एक स्पष्ट मिलावट को सिद्ध करता है।
और यहाँ से, अध्याय 115 के सभी शेष छंद स्पष्ट मिलावट दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए, छंद 22 और 23 में राम के द्वारा सीता को भरत, लक्ष्मण, सुग्रीव, शत्रुघ्न या विभीषण के साथ रहने की सलाह देना जो उनके चरित्र की वास्तवकिता के एक दम विपरीत है। जिन मर्यादाओ को राम ने जीवन दिया था उन्ही को वो निष्प्राण कैसे कर सकते है।
यही से ये सभी नकली छंद पूरे 116 वें अध्याय को कवर करते हैं जहां सीता राम के आरोपों का जवाब देती हैं और लक्ष्मण को एक अग्नि चिता तैयार करने के लिए कहती हैं। फिर वह उसमें कूद जाती है। इस अध्याय में अचानक, सभी ऋषि, गन्धर्व, देवता निकलते हैं, जो अब तक इस कथा मे अस्तित्वहीन थे। इसी प्रकार अध्याय 119 और 120 मे फिर से शुद्ध मिलावट की गई हैं।
सामान्य रूप से वाल्मीकि रामायण अपने अंत तक, कहीं पर भी चमत्कार घटनाओं या उनके प्रमाणित होने के किसी भी संदर्भ को प्रगट नहीं करती है। इसलिए, यदि कोई रामायण पर गहराई से एक सरसरी निगाह डालता है, तो यह प्रकरण स्पष्ट रूप से बाद के दिनों की हुई मिलावट के रूप में सामने आने लगता है, जो रामायण के वास्तविक मूल स्वरूप के एकदम विपरीत है जिसने हिंदू-विरोधी मानसिकता, स्त्री-विरोधी मानसिकता और धर्मांतरण के लिए राम के चरित्र पर आघात किया गया लगता है।
सारांश में मिलावट के कुछ अंश
निम्नलिखित छंदो मे स्पष्ट रूप से मिलावट दिखती हैं:
अध्याय 114: श्लोक 2 114 के बाद अंतिम श्लोक को छोड़कर
अध्याय 115 : श्लोक 15 के बाद
अध्याय 116 और 117
अध्याय 11: अंतिम कविता को छोड़कर
अध्याय 119 और 120
यदि इन सभी मिलावटों को दूर कर दिया जाय जो कथा मे असंतोष लाते हैं, तब कथा मर्यादित और तार्किक रूप से आगे चलती है। जिसमे शालीनता, सामर्थ्य, वीरता, कर्तव्य परायणता और बौद्धिक तर्कों का ऐसा संगम है जो मानव को उसके मूल्यों से उसका परिचय कराती नज़र आती है।
श्री राम का जीवन निष्कर्ष
अब प्र्शन ये है क्या राम सिर्फ एक पति ही थे, नहीं वो एक राजा भी थे। जितनी कर्मठता से राम अपने हर चरित्र को मर्यादा की परकाष्ठा पर अंकित किया उसी प्रकार उन्होने एक राजा के रूप मे राजधर्म को भी परिभाषित किया है। उन्होने यह दिखाया है की राजा के लिए उसके लौकिक सुखो का कोई महत्व नहीं होता, राजा किसी का नहीं होता वो अकेला होता।
अपनी प्रजा के लिए राजा को कोई भी मूल्य चुकाने से कभी भी पीछे नहीं हटना चाहिये। सीता जी से उनका पुनः वियोग राजधर्म की उसी मर्यादा को स्थापित करने का एक सुढृढ़ उदहारण है। जो राजा के धर्म और पति के धर्म के बिच के अंतर को दर्शाता है। ऊपर दिये गये Web Links मे राम के इन्ही गुणों का वर्णन किया गया है, जिस पर आप अपने विचार व्यक्त कर सकते है।
एक टिप्पणी भेजें
Plz do not enter any spam link in the comment box.