श्री राम एक सत्य निष्ठ मित्र
मित्रो का सम्मान और उनके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन, मित्र की आस्था और उसके समर्पण को आत्मसात करके मित्रता की यह परिभाषा की मित्र का सम्बन्ध, भक्त और भगवान की तरह होता है। जिस प्रकार भगवान किसी भेद को नहीं मानते वो केवल भाव को ही महत्व देते है। राम मित्रता के इसी भाव को चरिथार्त करते दिखाई देते है।
यही राम के चरित्र दर्शन का वो अनुपम सोन्दर्य है, जिसकी कल्पना मात्र से ही मनुष्य सांसारिक बंधनो को तोड़ता हुआ अपने जीवन के उस लक्ष्य की और अग्रसर हो जाता है, जहाँ पहुंचकर वो स्वयं को ही आत्मसात कर लेता है, और मुक्त हो जाता है।
मित्रता किसी भी सामाजिक मान्यताओं और उसके बंधनो से मुक्त होती है। राम इसी गूढ़ रहस्य को अपनाते हुऐ निषाद राज से इस प्रकार मिलते है, जिसमे समाज द्वारा रचित ऊंच-नींच और अस्पृश्यता की मान्यताये, जो मनुष्य की मनुष्य से विघटन भाव को स्थापित करती है, राम इसी भाव को शून्य करते हुऐ इस प्रकार मिलते है, जो मनुष्य की मनुष्य के मध्य ईश्वर द्वारा स्थापित एक भावत्मकता को सिद्ध करती है।
राम के इस चरित्र का समर्थन स्वयं मुनि भरद्वाज भी उस समय करते है, जब निषाद राज उनके आश्रम मे उनके समीप बैठने मे संकोच करते है, तब उनका यह वचन की जो राम का मित्र है, जिसे राम ने अपना लिया, वो तो उसी क्षण समस्थ सामाजिक बंधनो से मुक्त हो सबसे ऊँचा स्थान प्राप्त कर लेता है, जो राम की उस प्रबल सामाजिक एक दृश्यता को स्थापित करती है, जिसमे समस्त विघटन कारी भावो का अंत हो जाता है।
जिसका साहरा पाकर एक हतोत्साहित राजा भी अपने से शक्तिशाली राजा से प्रतिकार करने को उठ खड़ा होता है। राम का यह वचन की मित्रता निभाते हुऐ यदि पाप का भी भागी होना पड़े तो भी वह मित्रता को निभाएगे, इसीलिए वो बाली का छुपकर वध करने मे भी नहीं हिचकिचाते। जो उनका मित्र के साथ मित्र के सभी गुण और दोषो का पूर्ण रूप से अपनाने का एक जीवंत उदहारण है।
अंत मे निष्कर्ष
जहां मित्रता अपने सामर्थ्य पर नहीं बल्कि दूसरा कितना सामर्थयवान है इस पर आधारित होती है। आपसी लोभ और संकुचित मानसिकताओं के कारण मित्रता का वह भाव जिसे राम ने पोषित किया था, लुप्त हो गया है जिसे पुनः जीवित करने की आवश्यकता है। ऊपर दिये गये Web Links के द्वारा आप श्री राम से सम्बंधित तथ्यों को जान सकते है, और अपनी राय हमे दे सकते है।
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