"महामृत्युंजय मंत्र" एक प्राणशक्ति मंत्र
महामृत्युंजय मंत्र ("जो मृत्यु को जीतने वाला एक महान मंत्र है ") जिसे त्रयंबकम मंत्र भी कहा जाता है। यह यजुर्वेद के रूद्र अध्याय में, भगवान शिव की स्तुति करने के लिए की गयी एक वन्दना है। इस मन्त्र में देवाधिदेव शिव को 'मृत्यु को जीतने वाला' बताया गया है।
यह गायत्री मन्त्र के समान ही हिंदू धर्म का सबसे अधिक व्यापक रूप से जाना जाने वाला मंत्र है। इस मंत्र के कई नाम और रूप हैं। इसे भगवान शिव के उग्र रूप की ओर संकेत करते हुए सबसे शक्तिशाली रुद्र मंत्र कहा जाता है।
शिव के तीन नेत्रों की ओर इशारा करते हुए इसे त्रयंबकम मंत्र भी कहा जाता है और कभी कभी इसे मृत-संजीवनी मंत्र के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इसका निरंतर पाठ करने से कोई भी वयक्ति बड़े से बड़े संकट से भी छूट जाता है। यह मंत्र अकाल मृत्यु के भय को समाप्त करने वाला है।
कठोर तपस्या पूरी करने के बाद भगवान शिव द्वारा दैत्य ऋषि शुक्राचार्य को प्रदान की गई "जीवन बहाल करने वाली संजीवनी विद्या" भी इसी मंत्र का ही एक घटक है। ऋषि-मुनियों ने महा मृत्युंजय मंत्र को वेद का ह्रदय कहा है। चिंतन और ध्यान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अनेक मंत्रों में गायत्री मंत्र के साथ इस मंत्र का ही सर्वोच्च स्थान है।
देवश्वर शिव की अनुकम्पा द्वारा प्राप्त पुत्र मार्कण्डेय जब बढऩे लगे तो पिता ऋषि मृकण्ड चिंतित रहने लगे। बालपन बीता और कुमारावस्था के प्रारंभ होते ही पिता ने पुत्र मार्कण्डेय को शिव मंत्र की दीक्षा तथा शिवार्चना की शिक्षा दी। पुत्र को उसका भविष्य बताकर समझा दिया कि त्रिपुरारी ही उसे मृत्यु के इस संकट से बचा सकते हैं।
माता-पिता तो दिन गिन रहे थे। सौलह वर्ष आज पूरे होंगे और यमराज पुत्र के प्राणो को हर लेगे। उधर मार्कण्डेय महादेव मंदिर (वाराणसी जिला में गंगा गोमती संगम पर स्थित ग्राम कैथी में यह मंदिर मार्कण्डेय महादेव के नाम से स्थापित है।) में शिव के विश्वास की डोरी को थामे हुए बैठे थे। रात्रि से ही उन्होंने मृत्युंजय मंत्र की शरण ले रखी है-
ॐ हौं जूं स: ॐ भूर्भुव: स्व: ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्व: भुव: भू: ॐ स: जूं हौं ॐ !!
सप्रणव बीजत्रय-सम्पुटित महामृत्युंजय मंत्र चल रहा था। परन्तु काल किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। यमराज के दूत समय पर तो आए परन्तु महाकालेश्वर के भक्त की और दृस्टि भी नहीं कर पाये और लौट गए। उन्होंने अपने स्वामी यमराज से जाकर निवेदन किया- हे स्वामी हम मार्कण्डेय तक पहुंचने का साहस नहीं कर पाए।
इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड के पुत्र को मैं स्वयं ही लाऊंगा। यमदण्डधर यमराज जी महिषारूढ़ हो क्षण भर में ही मार्कण्डेय के पास पहुंच गए। बालक मार्कण्डेय ने जब उन कज्जल कृष्ण, रक्तनेत्र यमपाशधारी को देखा तो वो तुरंत ही लिंगमूर्ति से लिपट गये। यमराज ने पाश फैका परन्तु वह लिंगमूर्ति पर जा गिरा।
तभी हुम् शब्द, की एक अद्भुत अपूर्व हुंकार से मंदिर और समस्त दिशाएं थर्राह उठी और प्रचण्ड प्रकाश से चकाचौंथ हो गईं। तभी शिवलिंग से तेजोमय त्रिनेत्र गंगाधर चन्द्रशेखर प्रकट हो गए और अपना त्रिशूल उठाकर यमराज से बोले, हे यमराज तुमने मेरे आश्रित पर यमपाश फैकने का साहस कैसे किया?।
यमराज ने अपने प्राण संकट मे पड़ते देख तुरंत ही हाथ जोडक़र मस्तक झुका लिया और कहा कि हे! त्रिनेत्र मैं आपका ही सेवक हूं। कर्मानुसार जीव को इस लोक से ले जाने का निष्ठुर कार्य आपने ही इस सेवक को दिया है।
भगवान चंद्रशेखर ने कहा कि यह मेरा भक्त नहीं जाएगा। इसे मैंने अमरत्व प्रदान कर दिया है। मृत्युंजय प्रभु की आज्ञा को यमराज अस्वीकार कैसे कर सकते थे? यमराज खाली हाथ लौट गए। मार्कण्डेय ने यह देख कर भोलेनाथ के समक्ष अपना सिर झुकाया और उनकी स्तुति करने लगे।
उर्वारुमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।
'वृन्तच्युत खरबूजे के समान मृत्यु के बन्धन से छुड़ाकर मुझे अमृतत्व प्रदान करें। मंत्र के द्वारा चाहा गया वरदान उसका सम्पूर्ण फल उसी समय मार्कण्डेय को प्राप्त हो गया।'
त्र्यंबकम् - तीन नेत्रों वाला (कर्म का कारक), तीनों कालों में हमारी रक्षा करने वाले भगवान को
यजामहे - हम पूजते हैं, समर्पित करते हैं, हमारे श्रद्देय
सुगंधिम - मीठी सी महक वाला, सुगंधित (कर्म का कारक)
पुष्टिः - एक पूर्ण सुपोषित स्थिति, फलने और फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता
वर्धनम् - वह जो सबका पोषण करता है, शक्ति देता है, (स्वास्थ्य, धन और सुख में) वृद्धि का कारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित करता है और स्वास्थ्य को प्रदान करता है, एक अच्छा माली
उर्वारुकम् - ककड़ी (कर्म का कारक)
इव - जैसे, इस तरह
बन्धनात् - तना (ककड़ी का); ("तने से" पंचम विभक्ति - वास्तव में समाप्ति -द से अधिक लंबी है जो संधि के माध्यम से न/अनुस्वार में परिवर्तित हो जाती है)
मृत्योः - मृत्यु से
मुक्षीय - हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति दें
मा - नहीं वंचित होएं
अमृतात् - अमरता, मोक्ष के आनन्द से
सरल अनुवाद
हम त्रि-नेत्रीय वास्तविकता का चिंतन करते हैं जो जीवन की मधुर परिपूर्णता को पोषित करता है और वृद्धि करता है। ककड़ी की तरह हम इसके तने से अलग ("मुक्त") हों, अमरत्व से नहीं बल्कि मृत्यु से हों।
अंत मे निष्कर्ष
इस मंत्र मे ३२ शब्दों का प्रयोग हुआ है और इसी मंत्र मे यदि ॐ लगा दे तो ये ३३ शब्द हो जाते है इसीलिए इसे त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र भी कहते है इन्ही तैंतीस अक्षरों मे तैंतीस देवताओं (आठ वसु, बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र और दो अश्वनी कुमार) की शक्तियां समाहित है। महामृत्युंजय मंत्र की रचना ऋषि मार्कण्डेय ने की थी, जिनकी कथा भी बड़ी रोचक है। ऊपर इसका Web Link दिया गया है।
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